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________________ १५० उत्तराध्ययन सूत्र जानकर काम में लाना, जुलाब देना, वमन कराना, धूप ( सेक) देना, (आँखों के लिये) अंजन बनाना, स्नान कराना, रोग आने से 'हाय राम, ओवावा, ओ मां,' आदि क्रंदन करना, वैद्यक सीखना आदि क्रियाएं योगियों के लिये योग्य नहीं है। इसलिये इनका त्याग जो करता है वही साधु है। टिप्पणी:--उपरोक्त विद्याएं और उनके संबंध में की जाने वाली क्रियाएं अन्त में एकान्त त्याग धर्म से विमुख करने वाली सिद्ध होती है, इसलिये जैन साधु; इन क्रियाओं को नहीं करते और उनकी अनुमोदना भी नहीं करते । (९) जो क्षत्रियों की वीरता की, कुलीन राजपुत्रों की, तांत्रिक ब्राह्मणों की, भोगियों ( वैश्यों) की, भिन्न भिन्न प्रकार के शिल्पियों ( कारीगरों) की पूजा या प्रशंसा (क्योंकि ऐसा करना संयमी जीवन को कलुपित कारक है ऐसा जानकर जो ऐसा) नहीं करता वही साधु है । टिप्पणी-राजाओं या भोगी पुरुषों की अथवा ब्राह्मणों ( उस समय इनका वड़ा जोर था) की झूठी प्रशंसा करना साधु जीवन का' भयंकर दूपण है। योगी को सदा आत्ममग्न होकर विचरना चाहिये। झूठी खुशामद करने से आरम धर्म को धक्का लगता है। (१०) गृहस्थाश्रम में रहते हुए तथा मुनि होने के बाद जिन जिन गृहस्थों का अति परिचय हुआ हो उनमें से किसी के भी साथ ऐहिक सुख के लिये जो संबंध नहीं जोड़ता वही साधु है। -of-गृहस्थों के साथ मरिचय होने से कभी कभी आत्मधर्म
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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