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उत्तराध्ययन सूत्रं
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करेंगे। ऐसे विषय सुख कभी नहीं भोगे-सो तो है ही नहीं। इसलिये अब तो इस राग (सांसारिक आसक्ति)
को छोड़कर भिक्षुधर्म में श्रद्धा रखना यही श्रेष्ठ है । तरुण पुत्रों के इन हृदय द्रावक वचनों ने पिता के पूर्व संस्कारों को जागृत कर दिया फिर उसने
अपनी पत्नी को बुलाकर कहाः(२९) हे वाशिष्टि! मेरा भिक्षाचरी (भिक्षुधर्म ग्रहण) करने
का समय अब भा गया है क्योंकि जैसे वृक्ष शाखाओं से शोभित तथा स्थिर रहता है; शाखाओं के टूटने से जैसे वह सुन्दर वृक्ष एकदम शोभाहीन ढूंठ दिखाई देता है जैसे ही अपने दोनों पुत्रों के बिना मेरा गृहस्थ जीवन में रहना योग्य नहीं है।
.. 'टिप्पणी-पत्नी का वशिष्ट गोत्र होने से उसे वाशिष्ठि कहा है। .(३०) जिस तरह पंख विना पक्षी, संग्राम में सैन्य रहित राजा,
जहाज में द्रव्यहीन व्यापारी शोभित नहीं होता और उन्हें शोक करना पड़ता है वैसे ही पुत्र रहित मैं नहीं शोभता
और दुःखी होता हूँ। (३१) ( यह सुनकर उसको बी जसा पति की परीक्षा करने के
लिये यों बोली:-) उत्तम प्रकार के रसवाले तथा तमाम कामभोगों के साधन हमें मिले हुए हैं तो तो कामभोगों (इन्द्रियों के विषयों ) को खबरहा फिर बाद में in
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