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इषुकारीय
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(३२) ( ब्राह्मण ने कहा:-) हे भाग्यशालिनि ! (कामभोगों के)
रस खूब भोग लिये हैं। यौवन अब चला जा रहा है। फिर असंयमित जीवन जीने के लिये (अथवा किसी दूसरी इच्छा से ) मैं भोगों को नहीं छोड़ रहा हूँ; किन्तु, त्यागी जीवन के लाभालाभ, सुखदुःखों को खूब समझ.
सोचकर मौन (संयममागे) को अंगीकार कर रहा हूँ। टिप्पणी-भिक्षुजीवन में तो भिक्षा मिले और न भी मिले, तथा
अनेक प्रकार के दूसरे संकट भी सहने पड़े। गृहस्थजीवन में तो सब कुछ-स्वतत्र भोगने को मिला है फिर भी त्यागो जीवन की इच्छा हो इसमें पूर्व जन्म के संस्कार ही कारण हैं । त्याग में जो दुःख है वह गौण है और जो मानन्द है वही मुख्य है । यह मानन्द, यह शान्ति, यह विराम, भोगों में कहीं किसी ने कभी अनुभव
नहीं किया और करेगा भी: नहीं । (३३) पानी के प्रबल प्रवाह के विरुद्ध जानेवाला वृद्ध हंस जैसे
बाद में पछताता है वैसे ही तुम भी स्नेही ‘जनों का स्मरण करके खेदखिन्न होगे। इसलिये गृहस्थाश्रम में मेरे साथ रहो और यथेच्छ भोग भोगो। भिक्षाचरी का मार्ग तो बहुत दुःखद है। (यह वाक्य जसा ने अपने पतिः
से कहा है )। टिप्पणी-उक्त श्लोक में सयममार्ग के कष्ट और गृहस्थजीवन के हालोभन देकर पक्को कसौटी की गई है। या हे भद्रे ! जैसे सांप कांचली छोड़कर चला जाता है वैसे का मेरे दोनों पुत्र भोगों को छोड़कर चले जा रहे हैं.