SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इषुकारीय टप्पणी-अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्गो नैव च नैव च । तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चाद्धर्म समाचरेत् ॥ वेद धर्म का यह वाक्य एक खास अपेक्षा से कहा गया है। ___ ' वेद धर्म में भी अखंड ब्रह्मचर्य धारण करने वाले बहुत से त्यागी __ . . महारमा हुए हैं। जैसा कहा भी है अनेकानि सहस्त्राणि कुमारा प्रमचारिणः । स्वर्गे गच्छन्ति राजेन्द्र ! अकृत्वा कुलसंततिम् । उन दोनों पालकों ने अभी तक स्यागी का वेश धारण नहीं किया था। यहां उनकी वैराग्य भावना की प्रबलता बताने के लिए 'मुनि' शब्द का प्रयोग किया है। (९) इसलिये हे पुत्रो ! वेदों का अच्छी तरह अध्ययन' करके, ब्राह्मणों को संतुष्ट करके तथा स्त्रियों के साथ भोग भोग कर तथा पुत्रों को घर की व्यवस्था सौंप कर बाद में __ ही अरण्य में जाकर प्रशस्त संयमी बनना । टिप्पणी-उन दिनों, ब्राह्मणों को दान देना तथा वेदों का अध्ययन करना ' ये दो काम गृहस्थ धर्म के उत्तम अंग माने जाते थे। कुल-धर्म की छाप सब जीवों पर रहती है इसीलिये ब्रह्मचर्याश्रम के बाद गृहस्था• श्रम फिर उसके बाद वानप्रस्थाश्रम ग्रहण करने को कहा है। परन्तु सच्ची बात तो यह है कि इस प्रतिपादन में पिता की पुत्रवत्सलता विशेष स्पष्ट दिखाई दे रही है। एमावह ब्राझण) बहिरात्मा के गुण (राग) रूपी ईधन से रोड रूपी वायु धिम् प्रज्वलित तथा पुत्र वियोग से इस प्रकार दीन .. 4G3 TAAS .. A.XTANPERT क
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy