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उत्तराध्ययन सूत्र
वचन ( कि हे पुत्रो ! त्यागी न वनो आदि उद्विग्न वचन ) पुनः २ कहने लगा ।
(११) और पुत्रों को तरह २ के प्रलोभन देकर तथा अपने पुत्रों को क्रमशः धनोपार्जन तथा उसके द्वारा विविध भोगोपभोग जन्य सुखों का अनुभव करने का उपदेश देते हुए. उस पुरोहित (पिता) को वे दोनों कुमार विचार पूर्वक, ये वचन बोले
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(१२) हे पिताजी ! मात्र वेदाध्ययन से इस जीव को शरण नहीं मिलती । जिमाये हुए त्राह्मण, प्रकाश ( श्रात्मभान ) में थोड़े ही ले जाते हैं ? उसी तरह उत्पन्न हुए पुत्र भी ( कृत पापों के फल भोगने में ) शरणभूत नहीं हो सकते ।, तो आपके कथन को कौन मानेगा ?
टिप्पणी-अपने धर्म को भूल कर केवल ब्राह्मणों को निमाने मे सदम की प्राप्ति मुझे सकती है किन्तु अज्ञान और बढ़ता है । मात्र वेदाध्ययन से कहीं स्वर्ग नहीं मिल सकता | स्वर्ग या मुक्ति. की प्राप्ति तो धारण किये सत्य धर्म द्वारा ही हो सकती है ?
(१३) और कामभोग तो केवल क्षणमात्र ही सुख तथा चहुतः काल पर्यंत दुःख देने वाले हैं। जिस वस्तु में दु:ख, विशेष हो वह सुख कैसे दे सकता है । अर्थात् ये कामभोग केवल अनर्थ परंपरा की खान तथा मुक्ति मार्ग के शत्रु समान हैं |
(१४) विषयसुखों के लिये जहां तहां घूमता हुआ यह कामभोगों से विरक्त हमेशा राती रहता है।