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चित्तसंभूतीय
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(२०) हे राजन् ! पुण्य के फले से ही तू महासमृद्धिवान तथा
महाभाग्यवान हुआ है, इसलिये हे राजन् ! क्षणिक इन भोगों को छोड़कर शाश्वत सुख (मुक्ति ) की प्राप्ति के
लिये तू त्याग दशा को अंगीकार कर। (२१) हे राजन् ! इस ( मनुष्य के) क्षणिक जीवन में पुण्य..
कर्म नहीं करने वाला मनुष्य धर्म को छोड़ देने के बाद जब कभी मृत्यु के मुख में जाता है तब वह परलोक के
लिये बहुत ही पश्चात्ताप करता है। (२२) जैसे सिंह मृग के बच्चे को पकड़ कर ले जाता है वैसे
ही अन्त समय में मृत्युरूपी सिंह इस मनुष्य रूपी मृग-- शावक को निर्दय रोति से धर दबाता है और उस समय माता, पिता, भाई आदि कोई भी उसे मदद नहीं कर.
सकता । (२३) (कर्म के फल स्वरूप प्राप्त ) उन दुःखों में ज्ञाति
(जाति ) वाले, मित्रवर्ग, पुत्र या परिवार के लोग हिस्सा नहीं बाँट सकते। कर्म करने वाले जीव को वे स्वयं “भोगने पड़ते हैं, क्योंकि कर्म तो अपने कर्ता के पीछे २
लगे रहते हैं, ( दूसरों के पीछे नहीं)। टिप्पणी-कर्म ऐसी चीज़ है कि उसका फल उसके कर्ता को ही मिलता है, उसमें अपने जीवारमा सिवाय कोई कुछ भी न्यूनाधिक ही कर सकता। इसी दृष्टि से यह कहा गया है कि तुम्ही
हारा बंध या मोक्ष कर सकते हो। सुआवास, पशु, क्षेत्र, महल, धन धान्य आदि सबको.