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________________ १२६ उत्तराध्ययन सूत्र अकेला यह जीवात्मा ही सुन्दर या असुन्दर परलोक (परभव ) को प्राप्त होता है। टिप्पणी-यदि शुभ कर्म होंगे तो अच्छी गति होती है और अशुभ कमों के योग से अशुम गति होती है। (२५) ( मृत्यु होने के बाद) चिता में रक्खे हुए उसके प्रसार (चेतना रहित निर्जीव) शरीर को अग्नि में जलाकर कुटुम्बीजन, पुत्र, स्त्री आदि ( उसको थोड़े से समय में भूल कर) दूसरे दाता (मालिक) का अनुगमन (आज्ञा पालन) करने लगते हैं। "टिप्पणी-इस संसार मे सव कोई अपनी स्वार्थ सिद्धि तक ही संबंध रखते हैं। अपना स्वार्थ सिद्ध हुआ कि फिर कोई पास खड़ा . नहीं होता। दूसरे की सेवा में लग जाते हैं। (२६) हे राजन् ! मनुष्य की आयु तो थोड़ा सा भी विराम लिये विना निरंतर क्षय होती रहती है ( व्यों २ दिन अधिक वीतते जाते हैं त्यों २ आयु कम होती जाती है ) ज्यों २ वृद्धावस्था आती जाती है त्यों २ यौवन की कान्ति कम होती जाती है । इसलिये हे पांचाल राजेश्वर ! इन वचन को सुनो और महारम्भ (हिंसा तथा विपयादि) के क्रूर कायाँ को न करो। चित्त के एकान्त वैराग्य को उत्पन्न करने वाले ऐसे मुबोध वाक्यों को सुनकर ब्रह्मदत्त . (संभूति का जीव ) वोला(२७) हे साधु पुरुप ! जो उपदेश पाप मुझे दे रहे हो हावारी - 41NTRE
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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