SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ उत्तराध्ययन सूत्र AAAAAAvvvAr - Arvin/vv anvarARARAN (१०) (चित्त ने कहा:-हे राजेन्द्र ! जीवो द्वारा किये गये सब (सुन्दर या खराब) कर्म, फलवाले ही होते हैं। किये हुए कमों को भोगे विना छटकारा होता ही नहीं इसलिये मेरा जीव भी पुण्यकर्मों के उदय से उत्तम प्रकार की संपत्ति तथा कामभोगों से युक्त था। (११) हे संभूति ! जैसे तू अपने आपको महाभाग्यवान् समझ रहा है वैसे ही पुण्य के फल से युक्त चित्त को भी महान् ऋद्धिवान् जान । और हे राजन् ! जैसी उस (चित्त) की समृद्धि थी वैसी ही प्रभावशाली कान्ति भी थी। टिप्पणी-उपरोक्त दो दलोक चित्त मुनि ने कहे थे और आज वह मुनि - रूप में था । यद्यपि इन्द्रियनियमादि कठिन तपश्चर्या तथा आभूषण; आदि शरीर विभूपा के त्याग से आज उसकी देह कान्ति बाहर से शास्त्री दिखती थी फिर भी उसका आत्म भोजस् तो अपूर्व ही था। (१२) राजा ने पूंछा:-~यदि ऐसी समृद्धि मिली थी तो उसका त्याग क्यों किया ? चित्त मुनिने जवाब दिया:-परमार्थ (गंभीर अर्थ ) से पूर्ण फिर भी अल्पशब्दों की गाथा (एक मुनिमहाराज ने एक समय ) बहुत से मनुष्यों के समूह में कही थी। उस गाथा को सुन कर बहुत से भिक्षुकः चारित्र गुण में अधिकाधिक लीन हुए। उस गाथा को मुनकर में श्रमण ( तपस्वी ) बना। टिप्पणी-समृद्धि पाकर भी सन्तोष न था किन्तु यह गाथा तो बंधन नक्षण दूर हो गये और त्याग ग्रहण किया। (१३) ( ब्रह्मदत्त श्रासक्त था। उसको त्याग अच्छा ही है था, इसलिये
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy