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चित्तसंभूतीय
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- मृतगंगा नदी के किनारे हंस रूप में थे और चौथे भव में
काशी में चाण्डाल कुल में पैदा हुए थे। (७) ( पांचवे भव में ) हम दोनों देवलोक में महाऋद्धि वाले । देव थे। मात्र छटे जन्म में ही हम दोनों जुदे २ पड़
गये हैं। टिप्पणी-ऐसा कह कर संभूति ने छठे भव में दोनों ने जुदे २ स्थानों
में जन्म क्यों लिये इसका कारण पूंछा । (८) चित्त ने कहा:-हे राजन् ! तुमने (सनत्कुमार नामक
चतुर्थ चक्रवर्ती की समृद्धि तथा उसकी सुनंदा नामकी त्री रत्न को देखकर आसक्ति पैदा होने से ) तपश्चर्यादि उच्च कर्मों का नियाण (ऐसा तुच्छ फल) मांगा। इस कारण
उस फल के परिणाम से ही हम दोनों का वियोग हुआ । टिप्पणी-तपश्चर्या से पूर्वकर्मों का क्षय होता है। कर्मक्षय होने से
आत्मा हलकी होती है और उसका विकास होता है। पुण्यकर्म से सुंदर संपत्ति मिलती है किन्तु उससे आत्मा के पापी बनने की संभावना है। इसीलिये महापुरुष पुण्य की कभी भी इच्छा नहीं करते, केवल पापकर्म का क्षय ही चाहते हैं । यद्यपि पुण्य सोने की सांकल के समान हैं परन्तु सांकल (चाहे वह किसी भी धातु की क्यों न हो) बंधन तो है ही । जिसको बन्धन रहित होना हो उसको सोने की सांकल को भी छोड़ देने की कोशिश करनी चाहिये और अनासक्त भाव से कर्मों को भोग लेना चाहिये। ( ब्रह्मदत्त ने कहा:-) पूर्व जन्म में सत्य और कपट रहित तपश्चर्यादि शुभकर्म करने के कारण ही श्राज मैं (ऐसी र समृद्धि पाकर सख भोग रहा हूँ। परन्तु हे चित्त
- कर्म कहां गये।