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चित्तसंभूतीय
उसको अपने प्राण लेकर वहां से भाग जाना पड़ा। अन्त में घूमते २ वह हस्तिनापुर पाता है और पुण्य प्रभाव से अपनी विद्या तथा गुणों के कारण वहां के राजा का प्रधान मंत्री बन जाता है और उसके हाथ के नीचे सैंकड़ों मन्त्री काम करते हैं।
इधर, चित्त और संभूति अपनी संगीत विद्या की प्रवीणता 'द्वारा देश की सारी प्रजा को आकर्षित करते हैं। इससे काशी
राज के संगीत शास्त्रियों ने ईर्ष्या के कारण उन दोनों का अप. मान कराके राजा से नगर के बाहर निकलवा दिया। यहां यह दोनों बड़े ही दुःखित होते हैं और निरुपाय होकर पहाड़ पर से गिर कर आत्महत्या करने का विचार करते हैं । आत्महत्या के लिये ये पहाड़ पर चढ़ते है । यहां पर उनकी एक जैन मुनि से भेंट होती है। वे उनसे अपने दुःख का कारण तथा उससे निवृत्ति के लिये आत्महत्या करने के निर्णय को कहते है। अनन्त करुणा के सागर वे जैन मुनि इन दोनों की कथा सुन कर उन्हे जगत की असारता, विषयों की क्रूरता और जीवन
की क्षणभंगुरता का उपदेश देते है । इन दोनों को चैतन्य प्राप्त ' होता है । जन्म का अन्त (आत्महत्या) करने के इरादे
से आये हुये वे दोनों युवक, उस उपदेश को सुन कर जन्म परंपरा को ही नाश करने वाली जैन दीक्षा ग्रहण करते है। : चांडाल कुल में उत्पन्न होने पर भी, उन्होंने जैन दीक्षा धारण
की और उस प्रयत्न में लगे जिससे पुनः जन्म-मरण तथा अपमान सहना न पड़े। पूर्व संस्कारों की प्रबलता क्या नहीं करती।
विधिविधान बड़ा अटल है । कोई कुछ भी सोचा या किया करे, किन्तु होता वही है जो होनहार होता है। इसमें किसी की मीन-मेख नहीं तीरनियम.को कोई तोट मका