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________________ ११० उत्तराध्ययन सूत्र (४१) छकाय (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, तथा त्रस ) जीवों की हिंसा नहीं करने वाला, कपट तथा असत्य आचरण नहीं करने वाला, माया तथा अभिमान से दूर रहने वाला तथा परिग्रह, एवं स्त्रियों की आसक्ति से 'डरने वाला पुरुष 'दान्त' कहलाता है और वही विवेक पूर्व वर्तता है । (४२) (तथा) पांच इन्द्रियों को वश में रखने वाला, अपने जीवन की भी परवा नहीं करने वाला, शरीर के ममत्व से रहित ऐसा महापुरुप वाह्यशुद्धि की दरकार ( अपेक्षा ) न करते हुए उत्तम एवं महाविजयी भावयज्ञ करता है । (४३, ( उस भावयज्ञ में ) तुम्हारी ज्योति ( अग्नि ) क्या है ? और उस ज्योति का स्थान क्या है ? तुम्हारी कड़ी क्या है ? तुम्हारी श्रग्नि प्रदीप्त करने वाली क्या वस्तु है ? तुम्हारी लकड़ी ( समिधा ) क्या है ? और हे भिक्षु ! तुम्हारा शांति मन्त्र क्या है ? आप कौन से यज्ञ से यजन (पूजन) करते हो ? (उन ब्राह्मणों ने यह प्रश्न किया ) | (४४) मुनि महाराज ने उत्तर दिया : ---तप यही अग्नि है । जीवात्मा ही उस तपरूपी अग्नि का स्थान है । मन, वचन और काय का योग रूपी कड़छी है । श्रग्नि को प्रदीप्त करने वाला साधन यह शरीर है। कर्म (रूपों) ईंधन (समिधा) है । संयम रूपी शांतिमन्त्र है । उस तरह ( इतने साधनों से ) प्रशस्त चारित्ररूपी यज्ञ द्वारा मैं यजन
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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