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हरिकेशीय
अहो -
(३६) इतने ही में वहां पर आकाश से सुगन्धित जल, पुष्प, तथा धन की धाराबद्ध दिव्य वृष्टि होने लगी। देवों ने गगन में दुंदुभि वाजे बजाए तथा " अहो दान ? दान !” इस प्रकार की दिव्य ध्वनि होने लगी । टिप्पणी- देवों द्वारा बरसाये गये पुष्प तथा जलधारा अजीव होते हैं । (३७) “सचमुच दिव्यतप ही का यह प्रभाव है, जाति को कुछ भी विशेषता ( बड़प्पन) नहीं है धन्य है चांडाल पुत्र हरिकेश साधु को कि जिनकी ऐसी प्रभावशालिनी समृद्धि है" ! चांडाल पुत्र हरिकेश साधु को देख कर सब कोई एक ही आवाज से, आश्चर्य चकित होकर इस तरह कहने लगे ।
(३८) (तब तपस्वीजी ने उत्तर दिया,) हे ब्राह्मणों ! अग्नि का आरम्भ करके पानी द्वारा बाह्य शुद्धि को क्यों शोध रहे. हो ? क्योंकि बाहर की सफाई (बाह्यशुद्धि) आत्मशुद्धि का मार्ग नहीं है । महापुरुषों ने ऐसा कहा है कि :(३९) द्रव्य यज्ञ में कुश (दाभ) को यूप ( जिस काष्ठ स्तम्भ से पशुबांध कर वध किया जाता है ) को, तृण, काष्ठ ( समिधा ) तथा अग्नि और सुबह शाम पानी को स्पर्श (आचमनः आदि) करने वाले तुम मन्द प्राणी वारंवार छोटे २ जीवों को दुःख देकर पाप ही किया करते हो ।
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(४०) (तब ब्राह्मणों ने पूंछा) हे भिक्षु ! हम कैसा आचरण करें ? कैसा यज्ञ पूजन करें ? किस तरह पापों को दूर करें ? हे संयमी ! ये सब बातें हमें बताओ । हे देवपूज्य !' - किस वस्तु को ज्ञानवान पुरुष योग्य मानते हैं ?
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