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उत्तराध्ययन मूत्र
कर मुझे यही लगता है कि ) सचमुच जो यक्ष ( मेरी इच्छा न होने पर भी) सेवा करता है उसी के द्वारा ये
कुमार पीड़ित हुए हैं। टिप्पणी-जैन दर्शन में सहनशीलता के हजारों ही ज्वलन्त दृष्टांत भरे
पड़े हैं । त्यागी पुरुष की क्षमा तो मेरू के समान अढ़ग होती है। उसमे कोप या चंचलता आती ही नहीं। कुमारों की यह दशा देख कर ऋपिराज को बहुत ही दया आई । योगी पुरुप दूसरों को दुःख नहीं देते, यही नहीं किन्तु दूसरों को दुःखी होते भी देख नहीं
सकते। “(३३) (सच्चा स्पष्टीकरण होने के बाद इस ब्राह्मण पर बहुत ही
अच्छा असर पड़ा । वह बोला:-) परमार्थ तथा सत्य के स्वरूप के हे वाता! महाज्ञानी आप कभी भी क्रुद्ध नहीं होते । इन सब लोगोके साथ हम सत्र आपके चरणों
की शरण मांगते हैं। (३४) हे महापुरुप! हम आपकी सब प्रकार की (बहु सम्मान
के साथ) पूजा करते हैं। आपमें ऐसी एक भी बात नहीं है जो पूज्य न हो । हे महामुनिराज ! भिन्न २ प्रकार के शाक, रायता, तथा उत्तम जातिके चावलों से तैयार किया
हुआ यह भोजन आप प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण करें । (३५) यह मेरा वहुत सा भोजन रक्खा हुआ है। हम पर कृपा
करके उसे श्राप म्वीकारो। (उनकी ऐसी हार्दिक प्रार्थना सुन कर ) उन महात्मा ने मास खमण (एक महीने के उपवास के) सारणा में उस भोजन को सहर्ष स्वीकार किया।