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________________ १०२ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पणी-यह वही यक्ष है जो मुनि का सेवक था और उसीने शरीर में प्रवेश किया है। (९) मैं साधु हूँ। ब्रह्मचारी हूँ। संयमी हूँ। धन, परिग्रह तथा दूपित क्रियायों से विरक्त हुआ हूँ और इसीलिये दूसरों के निमित्त बनाये गये अन्न को देखकर इस समय मैं भिक्षा के लिये आया हूँ। टिप्पणी-जैन साधु दूसरों के निमित्त बनाये गये अन्न की ही मिक्षा लेते हैं। अपने लिये तैयार की गई रसोई वे ग्रहण नहीं करते । (१०) इस अन्न में से बहुतों को भोजन दिया जा रहा है, बहुत से ले रहे हैं, बहुत से स्वाद पूर्वक खा रहे हैं, इसलिये बाकी के वचे अन्न मे से थोड़ा इस तपस्वी को भी दो, क्योंकि मैं भिनाजीवी हूँ-ऐसा आप जानो। (११) (ब्राह्मण बोले )-यह भोजन ब्राह्मणों के ही लिये तैयार किया गया है। एक ब्राह्मण पक्ष (समूह ) अभी यहां आकर जीमेगा उसीके लिये यह यहां लाकर रक्खा है।' इसमें से तुझे कुछ भी नहीं मिल सकता। तू यहां क्यों: खड़ा है? (१२) उच्च भूमि में या नीची भूमि ( दोनो) में किसान, आशा पूर्वक योग्यता देखकर वीज बोता है। उसी श्रद्धा से तुम मुझे भोजन दो। और इसे सचमुच एक पवित्र क्षेत्र समझ कर इसकी आराधना करो। टिप्पणी-वस्तुतः रक्त शब्द मुनि मुख से यह यक्ष ही कह रहा था। (१३) वे क्षेत्र, जहां वोये हुए पुण्य उगते हैं (जिस सुपात्र को दान देने से वह सुफल होता है) वे सब हमें खबर हैं।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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