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________________ ८१ द्रुमपत्रक टिप्पणी - यदि इस विकास भूमि रूपी मनुष्य देह को पाकर भी अपना कर्तव्य न किया तो जीव को अधोगति में जाना पड़ेगा जहां उसे असंख्यात काल तक अव्यक्त स्थिति में ही रहना पड़ेगा । (६) यदि कदाचित् जलकाय ( जलयोनि) में जाय तो वहां पर भी उसी योनि में पुनः पुनः जन्म लेकर रहने की उत्कृष्ट अवधि असंख्यात काल की है, इसलिये हे गौतम ! एक समय का भी प्रमाद न कर । टिप्पणी- प्रमाद अर्थात् भात्मस्खलना और आत्मस्खलना को ही पतन कहते हैं । हम सब की प्रत्येक इच्छा विकास ( उन्नति ) के लिये ही होती है । आत्म विकास के लिये ही हम मनुष्य देह पाकर गौरव ले रहे हैं अपना सारा प्रयत्न इस विकास के लिये ही है । इसलिए आत्मविकास में जागृत ( सावधान ) रहना यही अपना कर्तव्य होना चाहिये और इसी का नाम अप्रमचता है । जैनधर्म में आत्मस्खलन के ५ प्रकार बताए हैं: - ( १ ) मद ( साधनों के मिलने का घमंड ): ( २ ) विषय ( इन्द्रियों के भोगोपभोगों में भासक्त होना ); (३) क्रोध, कपट और रागद्वेष करना; ( ४ ) निंदा; और (५) विकथा ( आत्मोपयोग रहित विषयों को बढ़ाने वाला कथा प्रलाप ) ये पाँचों ही प्रमाद विप समान हैं और आत्मा को अधोगति में ले जाने वाले ठग हैं । इसलिये पांचों विषों से अलग रहकर पुरुषार्थ करना यही अप्रमत्तता है और यही अमृत है । (७) यदि यह जीव श्रमिकाय में जाय तो वहाँ भी उत्कृष्ट श्रायुष्य असंख्यात काल तक भोगता है । इसलिये हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद न कर | (८) वायुकाय में उत्पन्न हुआ जीव असंख्यात काल तक की ६
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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