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________________ उत्तराध्ययन सूत्र - - mornwrwwwwv उत्कृष्ट आयु भोगता है और दुःख से अंत श्रावे ऐसी रीति से भोगता है । इसलिय हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद न कर । (९) वनस्पति काय में गया हुआ जीव अनन्तकाल तक दुःख पूर्ण आयु भोगता रहता है जिसका अन्त बड़ी कठिनता से होता है। इसलिये हे गौतम! एक समय का भो प्रमाद न कर। टिप्पणी-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीव होता है। अब तो आधुनिक विज्ञान से भी उक्त सत्य की सिद्धि हो गई है। इस स्थिति में जो चेतन रहता है उसमें स्थूल मानस (विचार शक्ति) अथवा बुद्धिविकास नहीं होता है और उस स्थिति में रह कर जो विकास होता है वह भव्यक्त होता है। यह सब बताकर शास्त्रकार यह कहना चाहते हैं कि यह मनुष्य देह ही पुरुषार्थ का परम स्थान है। इसलिये यदि यहां भी प्रमाद किया तो यह पूरी न जा सके ऐसी गंभीर भूल होगी। (१०) द्वीन्द्रिय (स्पर्श तथा रसना वाला) जीव की उत्कृप्ट श्रायु संख्यातकाल प्रमाण तक की है। इसलिये हे गौतम ! एक समय का भी प्रमाद न कर। टिप्पणी-काल का भिन्न २ प्रमाण भिन्न २ ठाणांगादि शास्त्रों में वर्णित है। गणितशास्त्र के अनुसार परार्ध ( शंख ) तक की संख्या संख्यात काल प्रमाण है; किन्तु जैनशास्त्र तो उससे भी आगे इकाई, दहाई, सैकड़ा से लेकर उत्तरोत्तर २० अंकों तक की संख्या का संख्यात काल मानता है। असंख्यात काल का अर्थ यह नहीं है कि जो गिना न नाय, बल्कि असंख्यात के लिये भी एक अमुक __ संख्या है, यद्यपि यह गिनती के अंकों द्वारा बताई नहीं जा सकती।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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