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________________ ७० उत्तराध्ययन सूत्र - - VANA डोरी ) और धीरज रूपी तूणी बना कर सत्य के साथ परिमन्थन ( सत्यचिन्तन ) करना चाहिये । (२२) क्योंकि तपश्चर्या रूपी बाणों से सज्जित मुनि कर्मरूपी वख्तर को चीर कर संग्राम में विजयी होता है और संसार से मुक्त होता है। टिप्पणी-बाह्य युद्धों की विनय तो क्षणिक होती है और अन्त में परि ताप (खेद) ही पैदा करती है। शत्रु का स्वयं शत्रु बन कर और दूसरे अनेकों को शत्रु बना कर यह शत्रता की परंपरा खड़ी कर लेता है । इससे ऐसे युद्धों की परंपरा जन्म जन्म तक चालू रहती है। और इसके कारण युद्ध से विराम कभी नहीं मिलता। इसी भावना के कारण अनेक जन्म लेने पड़ते हैं। इसलिये बाहर के शत्रुओं को उत्पन्न करने वाले उस अन्तरंग शत्रु को, जो अपने हृदय में घुसा. बैठा है, उसका नाश करने का प्रयास करना मुमुक्षु का कर्तव्य है। उस संग्राम में किस २ तरह के शस्त्रों की जरूरत पड़ती है उसको गहरी शोध करके उपरोक्त साधन भगवान नमि ने कहे हैं। उस योगी के अनुभव की अपने जीवन संग्राम में प्रतिक्षण आवश्यकता होती है। ___इस उत्तर को सुन कर इन्द्र आश्चर्य के साथ थोड़ी देर चुप रहा। (२३) इस तत्व को सुन कर तथा हेतु, और कारण से प्रेरित ., देवेन्द्र ने नमिराजर्षि से इस प्रकार प्रश्न कियाः(२४) हे क्षत्रिय ! सुन्दर मनोहारी भवन, छज्जे वाले घर तथा : बालाप्रपोतिका (क्रीड़ास्थान ) करा कर वाद में दीक्षा . प्रहण करो। . . . , ,
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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