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________________ जमि प्रव्रज्या द्वेष है वहां भप्रियता है । यदि राग की शांति हो जाय, तो द्वेष भी शांत हो जाय और जहां ये दोनों शांत हुए कि फिर दुःखमात्र न रहे क्योंकि दुःख का अनुभव रागद्वेष के कारण ही होता है। (१६) गृहस्थाश्रम से पर ( दूर ) हुए ऐसे त्यागी और सर्व जंजाल से मुक्त होकर एकान्त (आत्म ) भाव को ही अनुसरण करने वाले ऐसे भिक्षु को सचमुच सर्वत्र आनन्द ही श्रानन्द है। टिप्पणी-सारा राग हृदय में है। हृदय शुद्धि होकर जहां सन्तोष हुआ कि सब जगह फिर कल्याण तथा मङ्गल के ही दर्शन होते हैं। (१७) इस अर्थ को सुनकर हेतु कारण से प्रेरित देवेन्द्र नमि राजर्षि को लक्ष्य कर इस तरह बोला । (१८) हे क्षत्रिय ! किला, गढ़ का दरवाजा, खाई और सैंकड़ों सुभटों को यम द्वार भेजने वाले ऐसे यंत्र ( तोप बन्दूक आदि ) बना कर फिर दीक्षा ग्रहण करो। टिप्पणी-अर्थात् तुम अपने क्षत्रिय धर्म को प्रथम संभाल करके पीछे त्यागी के धर्म को स्वीकारो। जो पहिले धर्म को ही भूल जाओगे तो भागे कैसे बढ़ोगे। (१९) उसके बाद इस अर्थ को सुन कर हेतु तथा कारण से प्रेरित नमिराजर्षि ने देवेन्द्र को इस प्रकार उत्तर दिया । (२०-२१) श्रद्धा ( सत्य पर अविचल विश्वास) रूपी नगर संवर (संयम) रूपो किला, क्षमा रूपी सुन्दर गढ़, तीन गुप्ति ( मन वचन और काय का सुनियमन) रूपी दुःप्रधर्ष (दुर्जय शतघ्नी शस्त्र विशेष), पुरुषार्थ रूपी धनुष ईयो (विवेक पूर्वक गमन ) रूपी प्रत्यंचा (धनुष की
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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