SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .६३ कापिलिक से संतुष्ट होनेवाला ) है । ( सदा असन्तुष्ट ही रहती है ) । ~ (१७) ज्यों ज्यों लाभ होता जाता है त्यों त्यों लोभ बढ़ता जाता है । लाभ और लोभ दोनों एक साथ बढ़ते हैं । दो मासा ( पहिले जमाने की एक मुद्रा का नाम है ) मांगने की इच्छा अन्त में तमाम राज्य से भी पूरी न हुई !टिप्पणी- ज्यों ज्यों लाभ होता जाता है त्यों त्यों तृष्णा कैसे बढ़ती जाती है उसका आवेहुब चित्र ऊपर दिया है (१८) जिसका अनेक पुरुषों में चित्त (प्रेम) है ऐसी पीनस्तनी ( ऊंचे स्तनवाली ) और राक्षसी समान स्त्रियों में अनुरक्त मत बनो क्योंकि ये कुलटाएं प्रथम प्रलोभन देकर पीछे चाकर जैसा अपमानित वर्ताव करती हैं । टिप्पणी- वेश्या या नीचवृत्ति की स्त्रियों के विषय में उपरोक्त उपदेश है । जिस तरह पुरुषों को स्त्रियों में आसक्त न होना चाहिये वैसे ही स्त्रियों को भी पुरुषों में आसक्त न होना चाहिए यह बात विवेकपूर्व स्वीकार लेनी चाहिये । शिष्य को लक्ष्य करके कहा गया होने से इस कथन में स्त्री विषयक निर्देश हो यह स्वाभाविक ही है । परन्तु सच बात तो यह है कि चाहे पुरुष हो अथवा स्त्री, विषय की अतिवासना सभी को अधोगति देने वाली हैं । (१९) घर ( गृहस्थाश्रम ) का त्याग कर संयमी बना हुआ भिक्षु; स्त्रियों पर कभी भी आसक्त न हो । स्त्रीसंग ( सहवास ) को छोड़ कर उससे हमेशा दूर ही रहे । और अपने चारित्रधर्म को सुन्दर जानकर उसी में अपने मन को स्थिर रखे | (२०) इस तरह विशुद्धमतिवाले कपिल मुनि ने इस धर्म का ܐ
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy