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उत्तराध्ययन सूत्र
(१२) भिक्षु, गृहस्थों के वाकी बचे हुए ठंडे आहार और पुरानी उड़द के छिलकों, थूली, सक्तु, (पुलाफ ) या जौ श्रादि की भूसी का भी प्रहार करते हैं ।
टिप्पणी- साधु का शरीर मात्र सयम के निमित्त है और शरीर को बनाये रखने के उद्देश्य से ही वह भोजन लेता है ।
पतनकारी विद्याएं
· (१३) जो (साधु) लक्षणविद्या ( शरीर के अमुक चिन्हों से किसी का भविष्य जानने का शास्त्र ), स्वप्नशास्त्र और अंगविद्या ( अंग उपांगों से प्रकृति जानने का शास्त्र ) का उपयोग करते हैं वे साधु नहीं हैं - ऐसी आचार्यों की श्राज्ञा है ।
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- ( १४ ) ( संयम ग्रहण करने के बाद ) जो अपने आचरण को नियमपूर्वक न रख कर समाधियोग से भ्रष्ट होते हैं वे काम भोगों में श्रासक्त होकर ( कुकर्म करके ) श्रासुरी गति में जन्म ग्रहण करते हैं ।
(१५) फिर वहां से भी फिरते फिरते, संसार चक्र में चक्कर लगाते रहते हैं और कर्म परंपरा में खूब लिपट जाने के कारण उनको सम्यक्त्व ( सद्बोध ) प्राप्त होना दुलर्भ होता है । इसलिये कल्याणकारी मार्ग बताते हैं
(१६) यदि कोई इस लोक को उसकी तमाम विभूतियों के साथ एक ही व्यक्ति को उसके उपभोग के लिये दे दे तो भी उसकी तृप्ति नहीं होगी क्योंकि यह श्रात्मा ( वहिरात्मा - कर्मपाश में जकड़ा हुआ जीव ) दुष्पूर्य ( बड़ी कठिनता