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कापिलिक
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है वह घोर दुःखों के जाल से नहीं छूटेगा - ऐसे सच्चे धर्म को निरूपण करने वाले समस्त श्राचार्यों ने कहा है । टिप्पणी- किसी भी मत, वाद या दर्शन में अहिंसातत्व के बिना धर्म नहीं बताया है। जैनधर्म अहिंसा की सूक्ष्म से सूक्ष्म गंभीर समालोचना करता है । वह कहता है कि 'तुम दूसरों को दुःख न दो इसी में अहिसा समाप्त नही होती किन्तु तुम्हारे द्वारा किसी भी हिंसा के कार्य को उत्तेजन न मिले इस बात का भी विवेक रक्खो' । ९ ) जो दूसरों के प्राणों का अतिपात ( घात) नहीं करता, तथा समिति धारण कर सब जीवों का रक्षण करता है उसे 'सिक' कहते हैं, ऐसा अहिंसक बनने से उनके पाप, जिस तरह ( ऊंची ) जमीन से पानी शीघ्र बह जाता है वैसे ही निकल जाते हैं ।
टिप्पणी -- जैनदर्शन में पांच समितियां मानी गई हैं । उनमें आहार भाषा, शोधन, व्यवस्था तथा प्रतिष्ठापन ( कारणवशात् भिक्षादि बचने से उसे कहां डालना ? ) विधि का समावेश होता है ।"
(१०) जगत में व्याप्त त्रस ( चलते फिरते ) और स्थावर ( वृक्ष आदि स्थिर ) जीवों पर मन, बचन और काय से दंड ( प्रहार ) न आरम्भे ( करे ) ।
(११) शुद्ध भिक्षा ( का स्वरूप ) जानकर भिक्षु उसी मे अपनी आत्मा को स्थापे । संयम यात्रा के लिये ही ग्रास (कौल) परिमाण से (मर्यादापूर्वक ) भिक्षा ग्रहण करे और रस मे श्रासक्त न बने ।
टिप्पणी -- साधु संयम निभाने के उद्देश्य से ही भोजन करे, रसनेन्द्रिय की तृप्ति के लिये भोजन न करे ।