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उत्तराध्ययन सूत्र mma (३) (और ) अनंत ज्ञान तथा दर्शन के धारक, सर्व जीवों के
परम हितैषी, वीतमोह ( वीतराग) मुनिवर महावीर भी
जीवों की मुक्ति के लिये ऐसा ही कहते हैं। (४) भिक्षु को सब प्रकार की गांठे (आसक्तियाँ) तथा कलह
(वैर-भाव) छोड़ देने चाहिये । सव प्रकार के भोगोपभोगों को देखते हुए भी उनसे सावधान रहने वाला साधु
उनमें कभी लिप्त नहीं होता है। ५) किन्तु भोगोपभोग रूपी श्रामिप (भोग्य वस्तु) के दोषों
से कलुपित, हितकारी मार्ग तथा मुमुक्षु बुद्धि से विमुख, ऐसा वाल ( मूर्ख) मंद और मूढ़ जीवात्मा, वलाम में
फंसी हुई मक्खी की तरह, (संसार में ) फंस जाता है। (६) अधीर ( आसक्त) पुरुप तो सचमुच बड़ी ही कठिनता से
इन भोगों को छोड़ पाते हैं, उनसे भोग सुखपूर्वक सरलता से नहीं छूटते । (किन्तु ) जो सदाचारी साधु होते हैं वे इस अपार दुस्तर संसार सागर को तैर कर पार कर
जाते हैं। (७) बहुत से दुष्टबुद्धि तथा अज्ञानी भिक्षु; ऐसा कहा करते हैं
कि प्राणिवध हो इसमें क्या है ? ऐसा कहने वाले मृग (पासक्त) और मंदबुद्धि-धारी अज्ञानी, पापदृष्टि भिक्षु
नरक गामी होते है। टिप्पणी-कोई दूसरा (गृहस्य आदि) प्राणिवध करके भाहार बनावे
• तो ऐसा माहार साधु के लिए अकल्प्य ( अग्राह्य) है। (८) 'प्राणिवध में ही क्या दोप है ?' किन्तु ऐसे कथन को
जो नीव (करना तो दूर ही रहा ) अनुमोदन भी देता