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कापिलिक
कपिल का हृदय स्फटिक के समान निर्मल था इसलिये तत्क्षण ही उनका विचार प्रवाह बदला और उसी समय उन्हें सत्य तत्व की झांखी हुई । उनने मन में कहा - 'इन भोगों में कहीं भी तृप्ति नहीं है। लालला के वशीभूत होकर केवल दो माशा (सुवर्णमुद्रा ) सोना मांगने की इच्छा से आया हुआ मैं तमाम राज्य की विभूति मांगने को उद्यत हुआ; फिर भी उससे मेरी तृप्ति नहीं हुई ! आशागर्त वहां भी कहां भरता है ?
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अन्त में, इन पूर्व योगीश्वर के पूर्व संस्कार जागृत हो गये । सच्चे सुख का मार्ग समझ में आया और उसी समय उनने बाह्य समस्त परिग्रह का मोह क्षण भर में त्याग दिया। अब उन्हें दो माशे सोने की भी जरूरत न रही। उनके इस विलक्षण बर्ताव ने राजा तथा समस्त दरबारी लोगों को महाश्चर्य में डाल दिया और उनकी सुप्त आत्मा को भी प्रबुद्ध (जागृत) कर दिया ।
संतोष' के समान कोई सुख नहीं है और तृष्णा ही समस्त दुःखों की जननी ( माता ) है तृष्णा के शांत पड़ने से कपिल के अनेक प्रावरण नष्ट हो गये । उनका अंतःकरण प्रफुल्लित हो गया । उत्तरोत्तर उत्तम चिंतन के कारण श्रात्मध्यान करते करते उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई ।
( १ ) ( एक जिज्ञासुने पूंछा : भगवन् !) अनित्य, क्षणभंगुर और दुःखों से भरे हुए इस संसार में ऐसा क्या काम करूँ कि जिससे दुर्गति न पाऊँ ?
(२) आचार्य ने कहाः - पहिले की आसक्तियों को छोड़ कर, ( नवीन ) किसी भी वस्तु (स्थान) में रागबन्धन न बांधते हुए, विपयों से क्रम २ से बिलकुल विरक्त होता जाय तो उस भिक्षु के सभी दोष और महादोप छूट जाते हैं ।