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________________ || क्षेत्र काल और भाव इनकी अपेक्षाको कर्मबंध कारण माना है। तथा संसारका कारण और संसारकी || निर्जरा करनेवाला समस्त कर्म भरत आदि कर्मभूमियोंमें ही उत्पन्न होता है इसलिए भरत आदि पंद्रह क्षेत्रोंका ही नाम कर्मभूमि है समस्त मनुष्यक्षेत्र कर्मभूमि नहीं कहे जा सकते । तथा और भी यह बात | BISHNURSINGER BEPASSPORORSROFEROUPOR - षट्कर्मदर्शनाच्च ॥३॥ .. असि कृषि मषि विद्या वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मोंका सद्भाव भरत आदि कर्मभूमियोंके 15 | ही भीतर दीख पडता है भोगभूमियों के भीतर नहीं इसलिए उन कर्मों के संबंधसे भरत आदिकी कर्मभूमि संज्ञा युक्तियुक्त है। अन्यत्रशब्दः परिवर्जनार्थः॥४॥ ॥ सूत्रमें जो अन्यत्रशब्दका उल्लेख किया गया है उसका अर्थ परिवर्जन-छोडना है यथा "नवचित्सर्वदा सर्वविसंभगमनं नयः, अन्यत्र धर्मार्थस्य" (कहीं सदा सबको विश्वास न करना चाहिये परंतु धर्मपुरुषार्थसे अन्य जगह) इस वाक्यमें पहिले वाक्यांशसे धर्म अर्थ काम तीनों, पुरुषार्थों में विश्वास करना चाहिये। का ऐसा अर्थ प्रतीत होता था परंतु जब 'धर्म पुरुषार्थसे अन्यत्र कह कर धर्मपुरुषार्थकी व्यावृति कर दी गई तो यह अर्थ स्वयंसिद्ध हो गया कि 'धर्ममें तो विश्वास ही करना चाहिये और शेष दो अर्थ और ll काम पुरुषार्थमें नहीं' इसीप्रकार "विदेहाः कर्मभूमय इत्युक्ते विदेहाभ्यंतरत्वाइंवकुरूचरकुरूणामपि द कर्मभूमित्वप्रसंगे, अन्यत्रवचनादवेकुरूचरकुरुभ्योन्ये विदेहाः कर्मभूमयः, देवकुरुचरकुरखो हैमवताः ही दयश्च भोगभूमय इति” अर्थात् 'विदेह कर्मभूमि हैं ऐसे कहनेसे विदेहके भीतर रहने वाले देवकुरु और क म
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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