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________________ MUSIS SHOGSANSTRUMERDASTR है वान ऐसे उपशांतकषाय वा क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती आभगतवारित्रार्य कहे जाते हैं। तथा अंत-है रंगमें चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशमके विद्यमान रहते भी वाह्य उपदेशके कारण जिनके परिणाम है विरतिरूप हैं वे अनभिगतचारित्रार्य कहे जाते हैं । सार यह है कि वाह्यमें उपदेश आदिकी अपेक्षा विना किये ही जो स्वभावतः आत्माकी निर्मलतासे चारित्रवान हैं वे अभिगतचारित्रार्य हैं और चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशमरूप अन्तरंग कारण विद्यमान रहते वाह्य उपदेशके द्वारा जो चारित्रवान हैं वे अनभिगतचारित्रार्य हैं। दर्शनार्य दश प्रकारके हैं और उनके आज्ञारुचि १ मार्गरुचि र उपदेशरुचि ३ सूत्ररुचि ४ वीजहै रुचि ५ संक्षेपरुचि ६ विस्ताररुचि ७ अर्थरुचि ८ अवगाढरुचि ९ और परमावगाढरुचि १० ये नाम हैं। , सर्वज्ञ भगवान अर्हतद्वारा प्रणीत शास्त्रकी आज्ञामात्रसे जो श्रद्धान करनेवाले हैं-भगवान,अईतने । जो कहा है वह सर्वथा ठीक है ऐसा जिन्हें विश्वास है वे आज्ञारुचि नामके दर्शनार्य (सम्यग्दृष्टि) हैं। ए जिसमें जरा भी परिग्रहका संबंध नहीं है ऐसे मोक्षमार्गके श्रवणमात्रसे जिन्हें उस मार्गपर अटलरुचि है वे मार्गरुचि नामके दर्शनार्य हैं। जिनके श्रद्धानमें तीर्थकर वलदेव आदिके शुभचरित्रोंका धारक उपदेश कारण है वे उपदेशरुचि नामके दर्शनार्य हैं । दिगम्बर दीक्षाकी मर्यादाके प्ररूपण करनेवाले हूँ आचार ( आचारांग ) सूत्रके श्रवण करनेमात्रसे जिनके सम्यग्दर्शनकी प्रकटेता हो गई है वे सूत्ररुचि हूँ नामके दर्शनार्य हैं। जिन्हें बीज पदोंके ग्रहणपूर्वक सूक्ष्मपदार्थरूप तत्वार्थीका श्रद्धान है वे बीजरुचि नामके दर्शनार्य हैं। जीव आदि पदार्थों के सामान्य ज्ञानसे जिन्हें श्रद्धान हो वे संक्षेपरुचि नामके दर्शनार्य हैं । बारह अंग और चौदह पूर्वोके विषयभूत जीवादि पदार्थों का विस्तृत स्वरूप प्रमाण नयके ) SHIRSACRECAST ok
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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