SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 925
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ comse १०. c sieKKARAMES पूर्वाः पूर्वगा इति वचनं दिग्विशेषप्ततिपत्त्यर्थ ॥२॥ 'पूर्वाः पूर्वगा यह जो सूत्रमें उल्लेख किया गया है वह दिशा विशेषके प्रतिपादनकलिए किया । " गया है। वहांपर जो पहिली पहिली नदियां हैं वे पूर्व समुद्र में जाकर मिली हैं यह अर्थ है। सूत्रमें जो गंगा सिंधू आदिका निर्देश किया गया है उसकी अपेक्षासे 'पूर्वाः पूर्वगा" यहांपर पूर्वपना लिया गया है। यदि यहांपर यह शंका की जाय कि जब सूत्रनिर्देशकी अपेक्षा पूर्वपना लिया गया है तब कही गई गंगा सिंधू आदि सात नदियोंकों पूर्व समुद्र में जानेवाली माना जायगा क्योंकि सूत्रमें पहिले उन्हींका निर्देश है। सो ठीक नहीं । वहांपर 'द्वयोर्द्वयोः' इसका संबंध है इसलिए दो दो नदियोंमें जो पहिली पहिली हैं वे पूर्व समुद्र में जाकर मिली है हैं एक ही लवणं समुद्रके पूर्व भागकी ओर मिलनेसे पूर्व समुद्रमें मिली हैं यह कहा जाता है । यह यहां - अर्थ है इसतिसे गंगा सिंधू दो नदियोंमें पहिली गंगा, रोहित रोहितास्या इन दो नदियों में पहिली रोहित् इत्यादि रूपसे जोडाकी पहिली नदियां ही पूर्व समुद्रमें जानेवाली कही जायगी किंतु सूत्रः निर्देशके अनुसार गंगा सिंधू आदि पूर्व समुद्र में जाकर मिलनेवाली नहीं कही जा सकती। यदि यहां ६ पर यह शंका की जाय कि- . :.: : सूत्रमें जो 'द्वयोर्द्वयोः का ग्रहण है उसका अर्थ तो यह है कि दो दो नदियों का एक एक क्षेत्र विषय हूँ है, यही अर्थ ऊपर कहा भी गया है इसलिए दोदो नदियों में पहिले पहिलेकी पूर्व समुद्र में जाकर मिली है हैं इस अर्थसिद्धिकेलिए 'दयोयो' का संबंध यहां नहीं किया जा सकता ? सो ठीक नहीं। एक अर्थके है प्रकाशनकलिए प्रयुक्त शब्दका दूसरा भी अर्थ मान लिया जाता है इसलिए 'द्वयोईयोः' इसका ऊपर ११४ PARBA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy