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भाषा
॥ पूर्वमें रहने के कारण पूर्व विदेह संज्ञा है । उचरमें रहने के कारण उचरकुरु संज्ञा है। मेरुसे पश्चिम भागमें
अध्याय रहनेके कारण पश्चिम विदेह और दक्षिण भागमें रहनेसे देवकुरु संज्ञा है। शंका" मेरुके पूर्व आदि भागोंमें रहने के कारण जो पूर्व विदेह आदि संज्ञा मानी है वह ठीक नहीं क्योंकि ८५१ पूर्वविदेहमें नील पर्वतसे सूर्यका उदय और निषध पर्वतसे अस्त होता है वहां पर पूर्व दिशामें || || नील पर्वत है। पश्रिममें निषध, दक्षिणमें समुद्र और उत्तरमें मेरु पर्वत है । पश्चिम विदेहमें निषध ||७||
पर्वतसे सूर्यका उदय और नील पर्वतसे अस्त होता है । वहां पर पूर्वदिशामें निषध पर्वत है। पश्चिममें नील पर्वत है। दक्षिण दिशामें समुद्र और उत्तर दिशामें मेरुपर्वत है। उत्तर कुरुमें गंधमादन गजदंतसे सूर्यका उदय और माल्यवान गजदंतसे अस्त होता है । वहां पर पूर्व दिशाम गंधमादन
पर्वत है। पश्चिम दिशामें माल्यवान है। नील पर्वत दक्षिणमें और मेरुपर्वत उचर में है। तथा देवकुरुमें. ME सौमनस गजदंतसे सूर्यका उदय और विद्युत्मभसे अस्त होता है । वहां पर सौमनस पूर्वदिशामें है।
विद्युत्लभ पश्चिम दिशा में है। दक्षिण दिशामें निषधाचल और उत्तर दिशामें मेरुपर्वत है इसरीतिसे मेरुके || पश्चिम आदि भागमें रहनेसे पश्चिमविदेह आदि संज्ञा जो मानी गई हैं वे मिथ्या हैं ? सो ठीक नहीं। यदि विदेह क्षेत्रमें दिशाओंके विभागका आश्रय किया जाय तब तो उपर्युक्त संज्ञायें मिथ्या मानी जा . सकती हैं किंतु वहांकी अपेक्षा दिशाओंका विभाग नहीं मान कर भरत क्षेत्रमें ही दिशाओंके विभागकी कल्पनाकर मेरुके पूर्व आदि नाम माने हैं अर्थात् यदि विदेह क्षेत्रसंबंधी ही सूर्योदय एवं सूर्यास्तकी कल्पनासे दिशाभेद माना जाय तब तो शंकाकारका कथन ठीक है परंतु यहांपर भरतक्षेत्रसे पूर्व आदि RIL..
१-दिशाओंका विभाग केवल सूर्यके उदय और अस्तकी अपेक्षा माना है, वास्तवमें दिशा नामका कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है।
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