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________________ --- こっておっさ किया था । अवसर्पिणी कालमें पहिले ही पहिल राज्यविभाग के समय चक्रवर्ती भरतने ही पृथिवीका उपभोग किया था इसलिये उनके संबंध से जिस क्षेत्रकी पृथिवीका उन्होंने भोग किया था उसका भरतक्षेत्र नाम है । अथवा अनादिसंज्ञासंबंधाद् वा ॥ २ ॥ यह जगत अनादि है किसीने भी इस रूपसे इसका निर्माण नहीं किया । उस जगत के भीतर भरत यह नाम अहेतुक - किसी भी कारण से न होनेवाला, और अनादि है । यह भरतक्षेत्र; कहाँ पर है ? वार्तिककार इस विषयका खुलासा करते हैं हिमवत्समुद्रत्रयमध्ये भरतः ॥ ३ ॥ हिमवान पर्वत और पूर्व पश्चिम एवं दक्षिण तीनों दिशाओं में रहनेवाले तीन समुद्रों के बीच में भरत क्षेत्र है। इस भरतक्षेत्र के गंगा सिंधु दो नदी और विजयार्ध पर्वत से छह टुकडे हो गये हैं । वार्तिककार विजयार्धशब्दका खुलासा करते हैं पंचाशद्योजनविस्तारस्तदर्धोत्सेधः सक्रोशषड्योजनावगाहो रजताद्रिविजयार्थोऽन्वर्थः ॥ ४ ॥ विजया नामका एक रजतमयी पर्वत है अर्थात् चांदी के समान परमाणु ओंवाला है । चक्रवर्ती जिससमय छह खंडकी विजयकोलिये जाता है, विजयार्ध पर्वततक उसकी आधी विजय होती है इसलिये विजयार्ध पर्वतका स्थल चक्रवर्तीको आघी विजयका स्थल होनेसे विजयार्ध यह अन्वये नाम है । इस १ - यद्यपि एक लवण समुद्र ही भरतक्षेत्रके तीनों ओर फैला हुआ है परन्तु दिशाओंके कलंगनामेदसे उसके तीन खबर हो जानेसे वह तीन समुद्रोंके नामसे कहा जाता है। उत्तर भागमें पर्वत एवं क्षेत्र हैं । अध्याय ८४४
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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