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________________ ख०रा० पाषा ८४३ उस जगत के पूर्व दक्षिण पश्चिम और उत्तर चारो दिशाओं में क्रमसे विजय वैजयंत जयंत और अपराजित नामके धारक चार दरवाजे हैं अर्थात् पूर्वदिशामें विजय, दक्षिणदिशा में वैजयंत, पश्चिमदिशामें जयंत और उत्तर दिशा में अपराजित है । ये समस्त दरवाजे चार योजन चौडे हैं, आठ योजन ऊंचे हैं और इनका प्रवेशभाग चौडाईके समान ही है अर्थात् चार योजनका है । चारो दरवाजों में विजय और वैजयंत दरवाजोंका आपसमें अंतर उन्यासी हजार बावन ( ७९०५२) योजन, आधा योजन योजनका चौथा भाग, आघा कोश, कोशका चौथा भाग, बचीस धनुष, तीन अंगुल, एक अंगुलका चौथा भाग तथा आधा अंगुलका चौथा भाग कुछ अधिक है । जिस प्रकार यह विजय और वैजयंतका फामला बतलाया गया है उसी प्रकार वैजयंत और जयंतका, जयंत और अपराजितका एवं अपराजित और विजयका समझ लेना चाहिये ॥ ९ ॥ जंबूद्वीपमें छह कुलाचलोंसे विभक्त सात क्षेत्र हैं। वे कौन कौन हैं सूत्रकार उनके नाम बतलाते हैंभरतहैमवतहरिविदेहर म्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥ १० ॥ इस जंबूद्वीप में भरत, हैमवत, हरि, विदेड, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। भरतक्षेत्रकी भरत संज्ञा क्यों हुई ? वार्तिककार इस विषयका स्पष्टीकरण करते हैं भरतक्षत्रिययोगाद्वर्षो भरतः ॥ १ ॥ विजयार्ध पर्वत के दक्षिण की ओर, एवं लवण समुद्रके उत्तरकी ओर गंगा और सिंधुनदी के मध्यभाग में विनीता (अयोध्या) नगरी है। वह बारह योजन लंबी और नौ योजन चौडी है । उसमें समस्त राजलक्षणों से शोभायमान, छह खण्डकी पृथिवीके भोक्ता, चक्रवर्ती, राजा भरतने जन्म धारण अध्याय ३ ८४३
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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