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' नामकर्मचारित्रमोहनोकषायोदयाद्वेदत्रयासीद्धः॥१॥ नामकर्म और चारित्रमोहनीय कर्मके भेद नोकषाय कर्मके उदयसे स्री आदि तीनों भेदोंकी उत्पचि | होती है 'वेद्यत इति वेद' जो अनुभव किया जाय उसका नाम वेद है और उसका अर्थ लिंग है । वह लिंग द्रव्यालिंग और भावालिंगके भेदसे दो प्रकारका है। नामकर्मके उदयसे योनि लिंग आदिकी | रचना द्रव्यर्लिंग है और नोकषाय कर्मके उदयसे स्त्री आदि लिंगोंके अनुकूल इच्छाका होना भावलिंग है। स्त्री वेदके उदयसे जिसमें गर्भ ठहरे उसका नाम स्त्री है। पुरुष वेदके उदयसे जो संतानको पैदा करे उसका नाम पुरुष है और गर्भका ठहरना एवं संतान उत्पन्न करनारूप दोनो प्रकारकी सामर्थ्य से जो | विहीन हो वह नपुंसक है।
जिसतरह 'गच्छतीति गौः जो जावे उसका नाम गाय है यहांपर गमनक्रिया केवल व्युत्पाचिके | लिये मानी गई है प्रधानरूपसे नहीं। यदि प्रधानतासे मानी जायगी तो जिससमय गाय चलेगी उसी का समय गाय कही जायगी सोते बैठते खडे होते समय उसे गाय न कहा जा सकेगा इसलिये वहां गो.
शब्द रूढि है उसीप्रकार स्त्यायतीति स्री इत्यादि स्थलोंपर भी गर्भधारण आदि क्रियायें केवल व्युत्पचि ६ केलिये हैं प्रधानतासे नहीं, यदि उन्हें प्रधानतासे माना जायगा तो जिससमय गर्भधारण आदि क्रियां ६ होंगी उसीसमय स्त्री आदि कहे जायगे किंतु बालक और वृद्ध तियंच मनुष्य, तथा देव और कार्मण
काय योगोंमें स्थित जीव जिनमक गर्भधारण और संतान उत्पादनकी सामर्थ्य नहीं उन्हें सीवेदी वा | पुरुषवेदी न कहा जा सकेगा इसलिये स्त्री आदि शब्द रूढि हैं यौगिक नहीं।
स्त्री वेदको अंगारके समान माना है। पुरुषवेदको फुसकी अग्निके समान माना है और नपुंसक
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