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________________ जमक CHEMEECHURCHURELE | भी नष्ट होनारूप क्रियाका आधार है इसलिये 'शीयंत इति शरीराणि' इस शरीर शब्दके विग्रहका अभाव नहीं कहा जा सकता। यदि यहांपर यह शंका की जाय कि शरीरत्वादिति चेन्न तदभावात् ॥३॥ . शरीरत्व धर्मको नैयायिक आदिने अवांतर जातिस्वरूप माना है इसलिये उस शरीरत्वका जहां | सम्बन्ध हो उसे ही शरीर मानना चाहिये नामकर्मके निमित्तसे उसकी उत्पचि मानना अयुक्त है ? सो ठीक नहीं । वास्तवमें तो शरीरत्व जाति कोई पदार्थ नहीं । यदि वह पदार्थ हो भी तो नैयायिकोंने उसे डू | पदार्थका स्वभाव न मानकर उससे भिन्न माना है इसलिये जिसप्रकार उष्णत्व जातिको अग्निका स्व. भाव न मानकर उससे भिन्न माननेपर अग्नि पदार्थका निश्चय नहीं हो सकता उसीप्रकार शरीरत्वको भी यदि शरीरसे भिन्न माना जायगा तो उसके अस्तित्वका भी निश्चय नहीं हो सकता। पदार्थसे सर्वथा भिन्न जातिके सम्बन्धकी कल्पनाका पहिले अच्छीतरह खण्डन कर दिया गया है इस रीतिसे शरीरत्वके सम्बन्धसे शरीर पदार्थका माननाबाधित है किन्तु नामकर्मका उदय ही उसकी उत्पचिमें कारण है। उदारात्स्थूलवाचिनो भवे प्रयोजने वा ठञ् ॥४॥ . . _उदारका अर्थ स्थूल है उससे 'भव' अर्थमें वा प्रयोजन अर्थमें ठञ् प्रत्यय करनेपर औदारिक शब्द | की सिद्धि हुई है। 'उदारे भवं वा उदारं प्रयोजनं यस्य तत् औदारिकं' यह उसकी व्युत्पत्ति है। अर्थात् | इंद्रियोंसे देखने योग्य स्थूल शरीरको औदारिक शरीर कहते हैं। विक्रियाप्रयोजनं वैक्रियिकं ॥५॥ अणिमा महिमा आदि आठ प्रकारकी ऋद्धियों के द्वारा एक अनेक छोटा बडा आदि अनेक S ALEBABIRS ७२०
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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