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अध्यास
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रहती है वहांपर अगणित जीवोंकी उत्पत्ति और वृद्धि होती है इसलिए जीवोंकी उत्पचिमें प्रधान कारण ४] होनेसे सचित्त के बाद शीत पदका उल्लेख किया गया है। ..
अंत संवृतग्रहणं गुप्तरूपत्वात ॥ १७॥ जो पदार्थ गुप्त रहता है वह स्पष्टरूपसे नहीं दीखता किंतु क्रियासे ग्राह्य रहता है संवृत भी गुप्तरूप प्रदेशका नाम है इसलिए वह भी क्रियाग्राह्य है अर्थात् कार्यसे ग्राह्य होता है स्पष्टरूपसे नहीं देखा जा सकता इसरीतिसे गुप्तरूप रहने के कारण संवृत शब्दका अंतमें उल्लेख किया गया है । शंका
एक एव योनिरिति चेन्न प्रत्यात्मं सुखदुःखानुभवनहेतुसद्भावात् ॥ १८॥ समस्त संसारी जीवोंकी एकही योनि मान लेनी चाहिए भिन्न भिन्न योनियोंके माननेकी क्या आवश्यकता है? सो ठीक नहीं। प्रत्येक आत्मामें शुभ अशुभ परिणाम भिन्न भिन्न हैं। शुभ अशुभ-परि5 णामोंसे जायमान कर्मबंध भी भिन्न भिन्न है उस कर्मबंधके द्वारा प्रत्येक आत्माको सुख दुःखका भिन्न | भिन्नरूपसे अनुभव होता है इसलिए भिन्न भिन्नरूपसे सुख दुःखके अनुभवकी अपेक्षा योनियोंके भी है बहुतसे भेद माने गये हैं। .
तत्राचित्तयोनिका देवनारकाः ॥१९॥ • देव और नारकियोंके उपपादस्थान के पुद्गलपचय अचित्त हैं इसलिए देव और नारकी अचिच योनिवाले हैं।
गर्भजा मिश्रयानयः॥२०॥ जो जीव गर्भसे जायमान-गर्भज हैं वे सचिचाचिचस्वरूप मिश्रयोनिके धारक हैं क्योंकि उनकी
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