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________________ SASA मध्याप स०रा० भाषा ६९९ BASSAGREHELORDCRACSIRECRBADASHISHRA आहारक शरीर ऋद्धिधारी प्रमत्च गुणस्थानवर्ती ऋषियोंके ही होता है अन्य किसीके नहीं होता। इसलिये असंभव होनेके कारण विग्रहगतिमें उसका अभाव होनेसे उसके योग्य पुद्गलोंका ग्रहणरूप आहार नहीं हो सकता। तथा___औदारिक वैक्रियिक और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंका ग्रहणरूप जो आहार है वह कुटिल. गति-मोडेवाली गतिसे आहत-रुक जानेके कारण बाधित हो जाता है इसरीतिसे उसका विग्रहगतिमें अभाव है । इसलिये औदारिक वैक्रियिक और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंका ग्रहणरूप भी आहार || || विग्रहगतिमें नहीं हो सकता। खलासा तात्पर्य इसप्रकार है जिसतरह वर्षाकालमें उदय होनेवाले मेघसे निकले हुए जलमें पड़ा हुआ गरम लोहेका बाण उम | ६ जलके ग्रहण करनेमें समर्थ होने के कारण उस जलको खींचता है उसीप्रकार यद्यपि आठ प्रकारके कर्म है। पुद्गलोंके सूक्ष्मपरिणामसे परिणत और वृद्धिको प्राप्त जो मूर्तिमान कार्माण शरीर उसके निमिचसे ६) पूर्वशरीरकी निवृचि रूप मारणांतिक समुद्धातवाला और दुःखसे तप्तायमान यह जीव जिससमयमें || PI नवीन शरीरको धारण करनेकेलिए गमन कर रहा है उससमय आहारक है तथापि कुटिल गति करते || समय यह एक दो और तीन समय तक अनाहारक रहता है इसरीतिसे कुटिलगतिके कारण उपर्युक्त | आहारकी योग्यता न रहनेके कारण विग्रहगतिमें एकसमय दोसमय वा तीनसमय तक जीवका अना-1 8|हारक रहना युक्तियुक्त है। वहांपर जिससमय इसकी एकसमयवाली इषुगति होती है उससमय यह उपयुक्त आहारका अनुभव करता हुआ ही जाता है इसलिए एकसमयवाली इषुगतिमें यह आहारक है । जिससमय इसकी एकमोडेवाली G ARLAAAAAEBORGAORABHAR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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