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________________ अध्याय ABOUGHTSPEHARAPUResh और दो समयोंमें होनेवाली इसकी पाणिमुक्तागति होती है उससमय उसके पहिले समय मोडाके कारण यह जीव अनाहारक रहता है और दूसरे समयमै उपयुक्त आहारको ग्रहण करलेनेके कारण आहारक हो जाता है । जिससमय इसकी दोमोडेवाली और तीन समयोंमें समाप्त होनेवाली लांगलिका नामकी गति होती है उससमय दोमोडे लगानेके कारण पहिले और दूसरे समयमें तो यह अनाहारक रहता है और तीसरे समयमें उपयुक्त आहार ग्रहण करनेके कारण आहारक कहा जाता है तथा जिस समय इसकी तीन मोडेवाली चार समयों में समाप्त होनेवाली गोमूत्रिकागति होती है उससमय तीनमोडे लगाने के कारण एक दो और तीन समयतक तो यह जीव अनाहारक रहता है और चौथे समयमें उपर्युक्त आहार ग्रहण करनेके कारण आहारक कहा जाता है। इसप्रकार कमसेकम एकसमय और अधिकसे अधिक तीन समयतक यह जीव अनाहारक रहता है पश्चात् नियमसे आहारक हो जाता है यह बात खुलासारूपसे विस्तृत हो चुकी ॥३०॥ ___ जिसकी समस्त क्रियां शुभ अशुभरूप फलको देनेवाले कार्माण शरीरसे उपकृत हैं, पूर्वोपार्जेत कौके फलोंको भोगनेके लिये जिसका गमन श्रेणिके अनुकूल है, नानाप्रकारके कर्मों से जो व्याप्त है एवं मोडेवाली और मोडारहित इसप्रकार दो गतियोंके आधीन जिसका दूसरे देशमें जाना निश्चित है ऐसे जीवके नवीन दूसरे शरीरकी रचनास्वरूप जन्मके भेद सूत्रकार बतलाते हैं ___ संमूर्छनगीपपादा जन्म॥३१॥ नवीन शरीरका धारण करना जन्म है और वह संमर्छन, गर्भ और उपपादके भेदसे तीन प्रकार है अर्थात् संमूर्छनजन्म गर्भजन्म और उपपादजन्म ये तीन जन्मके भेद हैं। READPRESPECIPECAREE PURBAREAM
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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