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________________ अध्यार PERSPESASURESRAEBARGORIESRESSHREE संयोग रहता है वहां पर भले ही अधिकरण अर्थ विद्यमान हो तथापि वहां सप्तमी विभक्तिकी बाधक हूँ द्वितीया विभक्ति ही होती है । इसलिये एकं द्वौ त्रीन्वेत्यादि यहां पर द्वितीया विभक्तिका निर्देश ही है निर्दोष है। त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः॥४॥ यहां पर तीन शरीरोंसे औदारिक वैक्रियिक.और आहारक इन्हीं तीन शरीरोंका ग्रहण है तेजस और कार्माण शरीरोंका ग्रहण नहीं क्योंकि जबतक संसारका अंत नहीं होता तबतक अनादि कालसे 6 | सदा इनका प्रत्येक जीवके साथ संबंध रहता है और हमेशा ये अपने योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हूँ रहते हैं इसलिये इन दोनों शरीरोंके योग्य जो पुद्गलोंका ग्रहण होता है उसकी आहारक संज्ञा नहीं है हैं किंतु औदारिक वैक्रियिक आहारक ये तीन शरीर तथा आहारादिकी अभिलाषाके कारणभूत आहार है है शरीर इंद्रिय निश्वासोच्छ्वास भाषा और मन ये छह पर्याप्तिके योग्य जो पुद्गलोंका ग्रहण है उसका है नाम आहार है । इनमें विगहेगतावसंभवादाहारकशरीरनिवृत्तिः॥५॥ शेषाहाराभावो ब्याघातात् ॥ ६॥ ECARBOASTISESPECResote १-कालाध्वनोरत्यंतसंयोगे । २-३-५ काळ और माका जहांपर अत्यंत संयोग रहता है वहांपर द्वितीया विभक्ति होती है। कालकृत अत्यन्त संयोगका उदाहरण यथा-मासमधीते-अखंढरूपसे मासभर पढता है। यहां पर कालकत अत्यन्त संयोगसे 'मासे' की जगह 'मास' यह द्वितीया विभक्ति है। 'मासस्य द्विरधीते' मासमें दोवार पढता है यहां पर अत्यन्त संयोगके अमावसे द्वितीया विभक्ति नहीं। २-अनादिसम्बन्धे च । ४१। सर्वस्य । ४२ । तचार्य सूत्र अ० २ ३-शुभं विशुद्धमन्याषाति चाहारकप्रमत्तसंयतस्यैव । ४६ | तवार्थसूत्र अ० २।
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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