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________________ अध्या EPRESEASEIGIBABASARACHIERORREE समनस्कामनस्काः ॥११॥ अर्थ-समनस्क और अमनस्कके भेदसे संसारीजीव दो प्रकारके हैं। जिनके मन है वे समनस्क सैनी हैं और जिनके मन नहीं वे अमनस्क-असैनी हैं। ___मनके संबंध और असंबधसे संसारीजीव दो प्रकारके हैं । द्रव्यमन और भावमनके भेदसे मन भी दो प्रकारका है। उनमें जिस मनकी उत्पचि पुद्गलविपाकी कर्मके उदयसे होती है वह द्रव्यमन है और हूँ जो वीयांतराय और नो इंद्रियावरण कर्मके उदयसे होनेवाली आत्माकी विशुद्धि है वह भावमन है । जो टू है। जीव उस मनसे संयुक्त हैं वे समनस्क और उससे रहित हैं वे अमनस्क हैं । इसप्रकार समनस्क और अमनस्कके भेदसे संसारी जीव दो प्रकारके हैं शंका द्विविधजीवप्रकरणाद्यथासंख्यप्रसंगः॥१॥इष्टमिति चेन्न सर्वसंसारिणां समनस्कत्वप्रसंगात्॥२॥ संसारी और मुक्तके भेदसे पहिले जीवोंके दो भेद कह आए हैं। उन दोनों भेदोंका इस सूत्रमें संबंध होनेपर संसारीजीव समनस्क हैं और मुक्तजीव अमनस्क हैं ऐसा यथासंख्य क्रमसे अर्थ होसकता। है। यदि यहाँपर यह कहा जाय कि संसारीजीव सैनी और मुक्तजीव असैनी हैं यह अर्थ हमें इष्ट ही हूँ। है ? सो ठीक नहीं। एकेंद्रिय द्वौद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय और असंज्ञिपंचेंद्रिय जीवोंके मनका संबंध नहीं माना गया है । यदि सामान्यरूपसे संसारीजीवोंको समनस्क कहा जायगा तो उक्त एकेंद्रिय आदि सबही जीवोंको भी समनस्क कहना पडेगाजिससे सिद्धांतमें जो उन्हें अमनस्क-माना है उसका व्याघात हो जायगा इसलिए समस्त संसारीजीवोंको समनस्क नहीं कहा जा सकता। यथासंख्य क्रमका वार्तिककार उत्तर देते हैं DABASIRGOSSISTABASERABARISRBARICS
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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