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________________ | अध्याण SEGASAECIPEARANSFECIGAREBAREIBREA विशेष-सूत्रमें संसारीजीवोंको पहिले कहनेकेलिए वार्तिककारने वहुविकल्पत्व तत्पूर्वक और स्वसंवेद्यत्व ये तीन हेतु दिये हैं। वहांपर यह प्रश्न उठता है कि एकही हेतुका कहना उपयुक्त था तीन हेतुओं का क्यों उल्लेख किया गया ? उसका खुलासा इसप्रकार है-यदि वहुविकल्पव' यही हेतु दिया जाता हू तो उससे इष्टसिद्धि नहीं हो सकती थी क्योंकि सूचीकटाह न्यायके अनुसार जिसके थोडे भेद होते हैं | उसका पहिले प्रयोग किया जाता है और जिसके बहुत भेद होते हैं उसका पीछे प्रयोग किया जाता है। संसारीकी अपेक्षा मुक्तजीवोंके अल्प भेद हैं इसलिए वहुविकल्पत्वहेतुके उल्लेख रहनेपर भी पहिले | | मुक्तजीवोंका ही सूत्र में ग्रहण करना पडता। यदि तत्पूर्वकत्व यह हेतु दिया जाता तब भी संसारी | जीवोंका प्रथम ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि यद्यपि मुक्तजीवोंकी अपेक्षा संसारीजीव पहिले हैं तथापि || जो अभ्याहत और अल्पाक्षर होता है इसीका पहिले प्रयोग होता है यह नियम बलवान है। इसरीतिसे संसारीकी अपेक्षा मुक्तही अभ्यर्हित और अल्पाक्षर है इसलिए मुक्तशब्दहीका सूत्रों पहिले ग्रहण करना पडता। किंतु स्वसंवेद्यत्वहेतुके कहनेसे कोई दोष नहीं क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष संसारी जीवोंका ही होता है मुक्तजीवोंका नहीं इसलिए स्वसंवेदन प्रत्यक्षके विषयभूत संसारीजीवोंके अस्तित्वके आधीन | मुक्तजीवोंका आस्तत होनेसे सूत्रमें संसारीजीवोंका ही आदिमें ग्रहण उपयुक्त है ॥१०॥ . जिनका स्वभाव अशुभकर्मोसे जायमान फलोंके अनुभवन करनेका है। जिनका संसारका परिभ्र६ मण नहीं छूटा है और पूर्वोपार्जित नामकर्मके उदयसे जायमान जिनके बहुतसे भेद हैं वे जीव सैनी ६ असैनीके भेदसे दो प्रकारके हैं इसबातको सूत्रकार बतलाते हैं PASANDAREASOURISTREADARASANSARPUR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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