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________________ अध्याय पृथग्योगप्रक्रमे संसारिसंप्रत्ययः॥३॥ उपरिष्टसंसारवचनप्रत्यासत्तेश्च ॥४॥ यदि 'समनस्कामनस्काः ' इससूत्रमें संसारी और मुक्त दोनोंका संबंध रहता तो 'संसारिणो |६| मुक्ताश्च समनस्कामनस्काः ' ऐसा एक ही सूत्र कहते परंतु दो सूत्र पृथक् पृथक् कहे गये हैं इसलिये जाना जाता है कि इस सूत्रमें संसारियोंका ही ग्रहण है मुक्तोंका ग्रहण नहीं इसलिये संसारी समनस्क और मुक्त अमनस्क हैं इस विपरीत अर्थकी यहां कल्पना नहीं की जा सकती। और भी यह बात है कि-- आगे संसारिणस्त्रसस्थावराः' इस सूत्रमें संसारी शब्दका ग्रहण किया गया है वह समीपमें भी है | इसलिये 'समनस्काऽमनस्का' इस सूत्रमें उसका संबंध होनेपर समनस्क और अमनस्क ये दो भेद संसारी जीवोंके ही हैं यही अर्थ होगा मुक्त शब्दका इससूत्रमें संबंध नहीं हो सकता। शंका तदभिसंबंधेयथासंख्यप्रसंगः॥५॥ इष्टमेवेतिचेन्न सर्वत्रसानां समनस्कत्वप्रसंगात ॥६॥ | यदि संसारिणत्रसस्थावरा' इस सूत्रमें कहे गये संसारि शब्दका समनस्कामनस्का: इस सूत्रमें संबंध है। ॥ किया जायगा तो उस सूत्रमें तो बस और स्थावर शब्दका भी उल्लेख किया गया है इसलिये उनका संबंध में भी इस सूत्रमें होगा तब यथासंख्य क्रमसे त्रप्त समनस्क हैं और स्थावर अमनस्क हैं यह इस सूत्रका अर्थ है। IF मानना पडेगा । यदि यहाँपर यह कहा जायगा कि त्रप्त समनस्क हैं और स्थावर अपनस्क हैं यह अर्थ || || इष्ट ही है ? सो ठीक नहीं। यदि सब त्रसोंको समनस्क कहा जायगा तो दींद्रिय तेइंद्रिय चतुरिंद्रिय और |||| 18 असंज्ञिपंचेंद्रिय भी त्रस हैं उन्हें भी समनस्क कहना होगा परंतु आगममें उन्हें समनस्क नहीं माना है। 15 इसलिये सब ही त्रस जीवोंको समनस्क कहना अनिष्ट है। इस यथासंख्य क्रमका कार्तिककार समा- १३७ | धान देते हैं ASABHECHEREGISONSIBARDASARABAR NEESOLAGANICOLLEGACEEGLEGACK NERALASAR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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