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________________ 2LCLACH अध्याय AURESHMUKHREEGREENSHERS लिया जाय परंतु लक्षणों के भिन्न होनेमे दोनों भिन्न भिन्न स्वरूप हैं इसलिये जविका अमूर्तिकपना है एकांतसे नहीं किंतु अनेकांतसे है अर्थात् आत्मा कथंचित् मूर्तिक है कथंचित् अमूर्तिक है सर्वथा न मूर्तिक ही है और न अमूर्तिक ही है। - विशेष-भगवान धर्मनाथके पूर्वभवके जीव राजा दशरथको जिससमय वैराग्य हुआ उससमय वह देगबरी दीक्षा धारण करनेके लिये बन जाने लगा । उसका एक सुमंत्रनामका मंत्रीचार्वाक मतका अनुयायी था जिससमय उसने अपने मतका तत्त्व बतला कर राजाको बनसे रोकना चाहा उससमय राजाने उसके मतका अच्छी तरह खण्डन किया और दिगंबर दीक्षा धारण करली । यह विषय धर्म शर्माभ्युदयमें इसप्रकार है-- तं प्रेक्ष्य भूपं परलोक सिद्धथै साम्राज्यलक्ष्मी तृणवत्त्यजतं । मंत्री सुमंत्रोऽथ विचित्रतत्त्व चित्रीयमाणामिव वाचमूचे ॥ ६२॥ देव त्वदारब्धमिदं विभाति नभःप्रसूनाभरणोपमानं ।। जीवाख्यया तत्त्वमपीह नास्ति कुतस्तनी तत्परलोकवार्ता ॥ ६३ ॥ न जन्मनःप्राङ् न च पंचतायाः परोविभिन्नेऽवयेव न चांत । विशन्न निर्यन्न च दृश्यतेऽस्माद्भिन्नो न देहादिव कश्चिदात्मा ॥६॥ किं त्वत्र भूवह्विजलानिलानां संयोगतः कश्चन यंत्रवाहः। गुडानपिष्टोदकधातकीनामुन्मादिनी शक्तिरिवाभ्युदेति ॥६५॥ विहाय तदृष्टमदृष्टहतोवृथा कृथाः पार्थिव माप्रयत्न । KESALESALPARASINGEETAURUS
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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