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________________ अध्या त०रा० भाषा IBCHUSALMAGESHDOORDARBIEBERRECPDABARDIREEG को वा स्तनाग्राण्यवधूय धेनो ग्धं विदग्धो नतु दोधि शृंगं ॥६६॥ ___ अर्थात् मंत्री सुमंत्रने राजा दशरथको परलोकके सुभीतेके लिये जिससमय विशाल राज्य लक्ष्मीको | जीर्ण तृणके समान छोडते देखा वह विनयपूर्वक सामने आया और आश्चर्यकारी तत्त्वसे भरा हुआ | इसप्रकार वचन कहने लगा-प्रभो ! आपने जो यह कार्य करना प्रारम्भ किया है मुझे तो यह आकाशके । फूलसे बनाया गया हार सरीखा जान पडता है क्योंकि जब संसारमें जीव नामका ही कोई पदार्थ नहीं है। || तब उसके आधीन परलोकका अस्तित्व तो सर्वथा विरुद्ध है। महाराज! न तो जीव पदार्थ शरीरके |पहिले देखा गया। न वादमें देखा गया। न शरीरके खण्ड खण्ड कर देनेपर बीचमें देखा गया। प्रवेश ||5|| | करता और निकलता हुआ भी नहीं देखा गया इसलिये मेरा तो यह निश्रय है कि शरीरसे भिन्न कोई ||६| ६ भी आत्मा पदार्थ नहीं किंतु जिसप्रकार गुड अन्न आटा जल हई आदिके विलक्षण संबंधसे मद शक्तिी हूँ|| व्यक्त हो जाती है उसीप्रकार पृथिवी अग्नि जल और पवनके संबंधसे उत्पन्न एक विलक्षण शक्ति हूँ | जान पडती है उसीको लोगोंने आत्मा मान रक्खा है । इसलिये हे कृपानाथ ! इस इष्ट विशाल साम्राज्य | विभूतियों में लात मार कर अदृष्ट नेत्रोंसे नहीं दीख पडनेवाले परलोककेलिये जो आपका प्रयत्न है वह विकल्प है क्योंकि संसारमें ऐसा कोई भी विद्वान पुरुष नहीं देखा जो दूधकी आशासे गायके स्तनोंको | न दुइकर उसके सींग दुहे।आपका विशाल विभूतिको छोडकर परलोकके लिये उद्योग करना स्तनोंको छोड कर गायके सींगोंको दुहना है इसलिये आप बनमें न जाकर इसी साम्राज्य विभूतिका उपभोग | करें। राजा रशरथको यह सिद्धांत कब सह्य था वस श्रुत्वेत्यवादीनृपतिर्विधुन्वन्भानुस्तमांसीव च तदचांसि । AAAAAAAAACCORRECRESPERMISS १८७
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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