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माथा
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ऊपर जो यह कहा गया है कि पृथिवी आदिसे जन्य मूर्तिक इंद्रियों का ही शराबसे व्यामोह होता TRAM है अमूर्तिक आत्मगुणोंका नहीं वहांपर यह पूछना है कि वे नेत्र आदि इंद्रियां वाह्य इंद्रियां हैं कि अंत- अध्याय
रंग इंद्रियां हैं। यदि यह कहा जायगा कि वे वाह्य हैं तब तो वे अचेतन हुई और अचेतन पदार्थका || व्यामोह होता नहीं यह ऊपर कह दिया जा चुका है। यदि यह कहा जायगा कि वे अंतरंग इंद्रियां हैं। तब वहांपर भी यह प्रश्न उठता है कि वे चेतन हैं वा अचंतन हैं । यदि अचेतन माना जायगा तब ||| अचेतन पदार्थका व्यामोह नहीं हो सकता यह पहिले सिद्ध किया जा चुका है। यदि उन्हें चेतन माना ||६|| जायगा तब उन्हें विज्ञानस्वरूप ही मानना होगा फिर चेतनका ही व्यामोह होना युक्ति सिद्ध हो गया इसरीतिसे "आत्मा अमूर्त है इसलिये कर्मपुद्गलोंसे उसका व्यामोह नहीं हो सकता" यह कहना युक्ति बाधित है। शंका--
यदि आत्माको कर्मों के उदयके आधीन वा शरावके आवेशके आधीन माना जायगा तो असली | स्वरूपके प्रगट न होनेसे उसका अस्तित ही कठिन साध्य हो जायगा ? सो ठीक नहीं। भले ही कोंके | | उदय वा शरावके आवेशसे आत्मा अज्ञानी हो जाय परंतु उसके ज्ञानदर्शनरूप स्वरूपकी नास्ति नहीं हो सकती इसलिये उसके निजस्वरूपकी उपलब्धि रहनेके कारण उसकी नास्ति मानना अज्ञान है। इसी विषयका पोषक यह आगमका वचन भी है--
बंध पडि एयचं लक्खणदो होदि तस्स णाणचं, तम्हा अमुचिभावो णेयंतो होदि जीवस्स ॥१॥ बंध प्रत्येकत्वं लक्षणतो भवति तस्य नानात्वं तस्मादमूर्तिभावो नैकांतो भवति जीवस्य ॥१॥ अर्थात् कर्मप्रदेश और आत्मप्रदेशोंके आपसमें एकम एक होनेसे भले ही उन दोनोंको एक मान ७४
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