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________________ भाना तरा० कर्तृकके भेदसे करण भी दो तरहका है। जो करण, कर्तासे भिन्न हो वह विभक्तकर्तृक है जिसतरह । || देवदत्त फरसासे लकडी काटता है यहांपर फरसा भिन्न करण है, क्योंकि वह देवदचसे भिन्न है तथा जो||७ ३७ है करण कर्तास्वरूप ही है, कर्तासे भिन्न नहीं वह अविभक्तकर्तृक है जिस तरह 'अग्नि अपने उष्ण है। परिणामसे काठको जलाती हैं यहां पर उष्ण-परिणाम अभिन्न करण है क्योंकि वह अग्निस्वरूप ही है उसी तरह "आत्मा ज्ञानसे पदार्थों को जानता है" इहां पर ज्ञान भी अविभक्तकर्तृक करण है क्योंकि || ज्ञान आत्माका ही परिणाम है , उससे जुदा नहीं "इसलिये जब अभेद पक्षमें भी कर्ता करणकी व्य वस्था है तव वादीका जो यह कहना है कि' : भेद पक्षमें ही कती करणकी व्यवस्था होती है" वह निर18// र्थक है और भी यह वात है कि दृष्टांताच्च कुशूलस्वातंत्र्यवत् ॥२४॥ है जिसप्रकार देवदत्त कुशूलको तोडता है यहां पर जिस समय कुशल अत्यंत जीर्ण होनेके कारण है अपने आप ही टूट जाता है वहां पर स्वयं ही वह करण बन जाता है । उसको तोडनेवाला कर्तासे | भिन्न कोई करण नहीं होता उसी प्रकार आत्मा पदार्थों को जानता है यहां पर जाननेवाला आत्मा है। ही करण है आत्मासे भिन्न करण पदार्थ नहीं इसलिये भेद होने पर ही कर्ता करण व्यवहार होता है | || अभेद होने पर नहीं, यह हठ नहीं की जासकती। और भी यह वात है कि एकार्थपर्यायविशेषोपपत्तरिंद्रादिव्यपदेशवत् ॥ २५॥ एक पदार्थकी अनेक पर्यायें होती हैं परंतु वह पदार्थ पर्यायोंसे भिन्न नहीं कहा जाता जिसतरह | एक ही देवराजकी इंद्र शक पुरंदर आदि अनेक पर्याय हैं परंतु उन पर्यायोंसे देवराज भिन्न नहीं। SAMEBORECARERABASGESRAELECREBACHEBABA उRASAABASEASEASOURGERUA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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