SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ এ6মল RISAE तथा जिस समय ऐश्वर्यका भोग करता है उससमय इंद्र कहलाता है जिससमय सामर्थ्य का काम करता है उससमय शक्र कहलाता है और, जिससमय नगरोंको विदारण करता है उससमय पुरंदर कहलाता है इसप्रकार विशेष विशेष कार्योंसे देवराज ही इंद्र शक्र और पुरंदर आदि विशेष नामों का धारक गिना जाता है इसलिये जिस कार्य विशेष के करने से वह इंद्र कहा जाता है उस कार्य विशेषसे शक्र और पुरंदर नहीं । जिस कार्य विशेषसे शक्र कहा जाता है उससे इंद्र और पुरंदर नहीं और जिस कार्य विशेषसे पुरंदर कहा जाता है उससे इंद्र और शक नहीं कहा जाता क्योंकि इनकी शक्रादि रूप प्रत्येक अवस्था भिन्न २ व्यंजन पर्यायरूप प्रगट होती है । द्रव्यकी पर्याय को व्यंजनपर्याय कहते हैं । परंतु कार्य विशेष के कारण इंद्र शक्र पुरंदर आदि नामोंके रहते भी उनसे देवराज ही कहा जाता है वे पर्यायें देवराज से भिन्न अन्य किसी पदार्थ की नहीं उसीप्रकार आत्मा की भी ज्ञान दर्शन सुख आदि पर्याय मोजूद है तथा जानना देखना आदि कार्य विशेषोंसे उन पर्यायोंका भेद भी है परंतु बोध उनसे आत्मा का ही होता है। अन्य किसी पदार्थका बोध नहीं होता इसलिये एक ही पदार्थ की पर्याय को करण मानने से 'आत्मा ज्ञानके द्वारा पदार्थों को जानता है' यहां पर आत्माकी ज्ञान पर्यायके करण पडजाने पर आत्मा और ज्ञानका सर्वथा भेद सिद्ध नहीं हो सकता । कथंचित् भेदाभेद ही युक्तियुक्त है । अथवा कर्तृसाधनत्वाद्वा दोषाभावः ॥ २६ ॥ ज्ञान दर्शन और चारित्र ये तीनो शब्द केर्तृमाधन हैं । कर्ता अर्थमें प्रत्यय करने पर इनकी सिद्धि १ जहां कर्ता प्रधान होता है वह कर्तृसाधन कहा जाता है जिसतरह देवदस भात खाता है यहां पर भात खानेवाला देवदत प्रधान है इसलिये वह कर्ता है । भाष ३८
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy