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________________ अध्यार HERECREENABLEGEOGALEGECHURCHA | आदि पदार्थ है। उनमें प्रमेयोंकी आदिमें कहे गये जीव पदार्थका तत्त्व-स्वरूप क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर उसके उत्तरमें सूत्रकार कहते हैंऔपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च॥१॥ सूत्रार्थ-औपशमिक,शायिक, मिश्र, औदयिक, और पारिणामिक ये जीवके स्वतत्व अर्थात् निज-9 | भाव हैं सिवाय जीवके अन्य किसी भी पदार्थमें ये नहीं रहते । वार्तिककार प्रत्येकका लक्षण वतलाते हैं कर्मणोऽनुद्भुतस्वीर्यवृत्तितोपशमोऽधःप्रापितपंकवत् ॥१॥ गदले जलमें फिटकडी आदि पदार्थों के डालनेपर जिसप्रकार कीचड नीचे बैठ जाती है और है | गदलेपनके अभावसे जल स्वच्छ हो जाता है उसीप्रकार वाह्य अभ्यंतर दोनोंप्रकारके कारणोंसे सत्तामें | रहकर भी जिससमय कर्मकी शक्ति उदयमें नहीं आती उससमयमें जो आत्माके अंदर विशुद्धि रहती है उस विशुद्धिका ही नाम उपशम है। क्षयो निवृत्तिरात्यंतिकी ॥२॥ फिटकीरी आदि पदार्थों के डालनेसे कीचडके नीचे बैठ जानेपर जिससमय उस नितरे हुए जलको हूँ| किसी दूसरे स्वच्छ वासनमें ले लिया जाता है उससमय वह जिसप्रकार अत्यंत स्वच्छ कहा जाता है | क्योंकि उसमें फिरमे गदले होनेकी संभावना नहीं रहती उसीप्रकार तप आदि वाह्य और अभ्यंतर कारणोंके द्वारा कर्मों के सर्वथा नाश होजाने पर आत्माके अंदर जो अत्यंत विशुद्धता प्रकट हो जाती है उस अत्यंत विशुद्धिका ही नाम क्षय है। जिन कर्मोंके सर्वथा नाश हो जानेपर यह क्षयरूप विशुद्धता | |५०१ प्रकट होती है फिर वे कर्म किसी हालतमें आत्माके साथ संबंध नहीं कर सकते। SANBRECEBSASURURAL S E
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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