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________________ नैगमके बाद संग्रह, संग्रहके बाद व्यवहार इस रूपसे जो नयोंका क्रम है उस क्रमके होने में उत्तरो|| चर सूक्ष्मविषयता एवं पूर्व पूर्व नय कारण और उचर उत्तर नय कार्य इसप्रकार कार्य कारणभाव कारण | है। इन दोनों कारणोंमें उत्तरोचर सूक्ष्मविषयतारूप कारण इसप्रकार है नैगमनयका जैसा सत्पदार्थमें संकल्प है वैसा ही असत्पदार्थमें संकल्प है इसलिये सत् असत् दोनों प्रकारके पदार्थों में संकल्पको विषय करनेके कारण सबसे अधिक विषय नैगमनयका है। संग्रहनयका अभेदया स्वरूप सत्-द्रव्यत्व आदि ही विषय है असत् नहीं है इसलिये नैगमनयकी अपेक्षा संग्रह नयका विषय | अल्प है। व्यवहार नय अभेदको विषय न कर सत् द्रव्य आदिके भेदोंको विषय करता है इसलिये संग्रह || | नयकी अपेक्षा व्यवहारनयका अल्प विषय है। भेदोंमें भी व्यवहार तोत्रिकालवर्ती भेदोंको विषय करता ६ है परंतु ऋजुसूत्रनय शुद्ध वर्तमानकालीन भेदको ही विषय करता है इसलिये व्यवहारकी अपेक्षा ऋजु-18 है। सूत्रनयका अल्पविषय है। ऋजुसूत्रनय लिंग संख्या आदिका भेद न कर वर्तमान पर्यायको विषय करता है परंतु शब्दनय उस एक पर्यायमें भी लिंग संख्या आदिके भेदसे अर्थका भेद प्रकाशन करता है इसलिये ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा शब्दनयका अल्पविषय है । अर्थात् ऋजुसूत्रनय अर्थ पर्याय और शब्द पर्याय सभी को विषय करता है परंतु शब्दनय केवल शब्द पर्यायको ही विषय करता है । इसलिये ऋजुसूत्र महाविषय || और शब्दनय स्वल्पविषय है । शब्दनय लिंग संख्या आदिके भेदसे ही अर्थ भेद मानता है, पर्याय भेदसे || अर्थभेद नहीं मानता परंतु समभिरूढ नय भिन्न भिन्न पर्यायोंके भिन्न भिन्न अर्थ होते हैं यह द्योतन | करता है इसलिये पर्यायके भेदसे अर्थका भेद मानना समभिरूढ नयका विषय होनेसे शब्दनयकी अपेक्षा समभिरूढ अल्पविषय है अर्थात् शन्दनय नाना शब्दोंके अर्थको ग्रहण करता है परंतु समभिरूढ AURREARSABREALOUSERUAERUA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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