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________________ उमटवल अध्या ' दाहकत्वाद्यतिप्रसंग इति चेत्तव्यतिरेकादातिप्रसंग इति ॥ १२॥ यदि अग्निज्ञानसे परिणत आत्माको एवंभूत नयकी अपेक्षा अग्नि कहा जायगा तो जलाना. | पकाना आदि जितने धर्म अग्निमें हैं वे सब आत्मामें भी मानने पडेंगे इसलिये आत्मा अग्नि नहीं कहा जा सकता? सो ठीक नहीं । नाम स्थापना आदि जिस स्वरूपसे कहे जाते हैं वे उससे आभिन्न रहते हैं और जिस पदार्थके जो जो धर्म होते हैं वे नियमितरूपसे उसीमें रहते हैं। आत्माका जो अग्नि है M& नाम है उसका आत्माके साथ अभेद है परंतु अग्निके जो जलाना पकाना आदि धर्म हैं वे अग्निमें ही 1|| में रहते हैं आत्मामें नहीं हो सकते इसलिये नोआगमभाव अर्थात् साक्षात् अग्निमें रहनेवाला दाहकपना | | आगमभाव अर्थात् औपचारिक अग्निमें नहीं हो सकता। इसरीतिसे यदि आत्माका नाम अग्नि माना | जायगा तो अग्निके दाहकत्व आदि धर्म आत्मामें मानने पडेंगे यह जो ऊपर शंका की गई थी वह निर्मूल सिद्ध हो चुकी। -1545455 AERAIGARASIBHABHISHEKONEY अनेक अर्थों में प्रसिद्ध अर्थ 'गाय' लेना और सब अर्योको छोड देना तथा उस गायको सोती उठती वैठती चलती सभी अवस्याओंमें गाय कहना यह समभिरूढ नयका विषय है। इसी तरह इन्द्र शब्दका व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ परमैश्वर्यका भोगना है इसका तो विचार न करना किंतु शक्तिमान होना, पुरोंका विदारण करना आदि अनेक अर्थों में प्रसिद्ध अर्थ परमैश्वर्यका भोगना ही लेना और अर्थ छोड देना एवं उस इन्द्रको परमैश्वर्यका भोग कर रहा हो, वान कर रहा हो सभी अवस्थानों में इन्द्र करना यह समभिरूढनयका विषय है इसी तरह और मी उदाहरण समझ लेना चाहिये । परंतु जहां पर केवल व्युत्पचिसिद्ध हो अर्थ विषय हो वह एवंभूत नय है जिस तरह गपन करनेवालीको ही गाय कहना खडी रहनेवाली वा खोनेवालीको न कहना वा जिस समय इन्द्र परमैश्वर्षका भोग कर रहा हो उसी समय इन्द्र कहना अन्य समय इन्द्र न कहना यह एवंभूत नयका विषय है । २ आगम नो आगमका अर्थ नापस्थापनेत्यादि सूत्रमें लिख पाये हैं। SCORE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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