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________________ सन्रा० भाषा SAHESASURECRORESPERIES लिंगक वा विभिन्नसंख्यक आदि शब्दोंका लिंग आदिके भेदसे भेद होनेके कारण आपसमें संबंध सिद्ध नहीं हो सकता किंतु जो शब्द समानलिंगक जिसतरह 'घटः कुटः' और समानसंख्याक जिसतरह 'नक्षत्र-ऋक्ष' आदि होंगे उन्हीका आपसमें संबंध हो सकता है यह शब्दनय वतलाता है। इसरीतिस 'तारका स्वातिः' यहाँपर लिंग भेद और नक्षत्रं पुनर्वसू इत्यादि स्थलोंपर वचन आदिके भेदोंसे परस्पर भिन्न होनेके कारण आपसमें संबंध नहीं हो सकता क्योंकि वहां लिंग आदिका व्यभिचार है इसीलिये उनका वैसा व्यवहृत होना शब्दनयकी अपेक्षा वास्तविक नहीं । यदि यहाँपर यह शंका की जाय कि तारका शब्दकी पर्याय स्वाति; और नक्षत्र शब्दकी पर्याय पुनर्वसू आदिका व्यवहार संसारमें मौजूद है फिर वहांपर शब्द नयकी अपेक्षा लिंग व्यभिचार आदि दोष नहीं माने जा सकते क्योंकि किसी भी सिद्धांतकारने वहांपर लिंग व्यभिचार आदि दोष स्वीकार कर उनका परिहार नहीं किया है । इसलिये जबरन लिंग आदि व्यभिचार दोषोंको प्रकाशित करनेके लिये शब्दनयका मानना निरर्थक है? 8 सो नहीं । शब्द पदार्थपर व्याकरण शास्त्र की सचा निर्भर है। यदि वैयाकरणोंको शब्दोपजीवी भी कह दिया जाय तो अयुक्त नहीं। जिन जिन व्यभिचार दोषोंका ऊपर उल्लेख किया गया है और उनका र प्रकाश करनेवाला एवं रोकनेवाला शब्दनय बताया गया है, शब्दमाण वैयाकरणोंने भी उन्हें व्यभिचार हूँ दोष मान उनका परिहार किया है परंतु वह उनका माना हुआ परिहार सदोष है । विना शब्दनयके है 'माने लिंग व्यभिचार आदि दोषोंका परिहार हो नहीं सकता इसलिये शब्दनय माननाही होगा। लिंग * संख्या आदि संबंधी व्यभिचार दोषोंकी निवृचिके लिये वैयाकरणोंने क्या क्या परिहार दिये हैं और वे किसतरह सदोष हैं.१ इसविषयमें हम श्लोकवार्तिकके वचन यहां उद्धृत करते हैं MEvilawaiiiiiiamari
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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