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________________ अध्याय MOUNDA-SANSAMACARA & से 'तारका स्वातिः' यहाँपर त्रीलिंग तारका शब्दके पुंलिंग स्त्रातिशब्द और नक्षत्रं पुनर्वसू यहां एकमला वचनांत नक्षत्र शब्दके द्विवचनांत पुनर्वसू आदि जितने अपर विभिन्नलिंगक आदि पर्याय कहे गये || हैं वे लिंग आदि व्यभिचार स्वरूप हैं आपसमें उनका संबंध नहीं हो सकता इसलिये वे शब्दनयके विषय नहीं कहे जा सकते । शंका यदि तारका शब्दकी स्वाति पर्याय और नक्षत्र आदि शब्दोंकी पुनर्वसू आदि पर्याय न मानी जायगी तो लोक और शास्त्र दोनोंका विरोध होगा क्योंकि संसारमें वैसा व्यवहार दीख पडता है और || शास्त्रोंमें व्यवहारनय वैसे प्रयोगोंको ठीक मानता है इसलिये शास्त्रविरोध आता है । इसका उत्तर यह ||६|| है है कि यहाँपर शब्दनयका वास्तविक विषय क्या है ? इस तत्त्वपर विचार किया गया है। यदि इस तत्त है विचारसे किसी प्रकारका विरोध जान पडे तो हो, उसकी कोई चिंता नहीं क्योंकि जो पुरुष ज्ञानवान है। वे व्यवहारका स्वरूप अच्छीतरह जानते हैं। किस नयका विषय क्या है ? वे अच्छीतरह व्यवहार PI कर सकते हैं इसलिये जिसनयका जो स्वरूप है वह उसी नयसे ठीक है। विशेष-जिसप्रकार घट पट आदि पदार्थ भिन्न हैं उसीप्रकार जिन शब्दोंके लिंग संख्या आदि | भिन्न हैं वे भी आपसमें भिन्न हैं इसलिये शब्दनयकी अपेक्षा जो शब्द भिन्नलिंगक आदि हैं उनका ||६|| & आपसमें संबंध नहीं हो सकता क्योंकि लिंग संख्या आदिके भेदसे वे पदार्थ भी भिन्न भिन्न हैं और ६ ४ा अन्य पदार्थों का अन्य पदार्थों के साथ संबंध होता नहीं यह सिद्धांतसिद्ध वात है । यदि लिंग आदिकेहू हूँ भेदसे भिन्न भी पदार्थों का जबरन आपसमें संबंध मान लिया जायगा तब घट पट वा.घट मठ आदिका II भी संबंध युक्त कहना पडेगा फिर घट पट आदि भिन्न भिन्न पदार्थ भी एक मानने होंगे। इसलिये विभिन्न || BABISHNOISSESSMAG
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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