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________________ SACHCHEREGIONEDABASAHERS पं०पन्नालालजी दूनीवालोंकी टीकामें भिन्न रूपसे लिखा है। इसीप्रकार और भीव्याभिचार समझ लेने चाहिये । और उनकी शब्दनयसे व्यावृचि जाननी चाहिये । इसका खुलासा यह है कि एकवचनके साथ बहुवचन है का पुलिंगके साथ श्रीलिंग या नपुंसक लिंगका इत्यादि प्रकारसे जो संबंध है एवं व्यवहार है उसे व्यव हारनय तो ठीक समझता है उसनयकी अपेक्षा वैसे प्रयोग किये जा सकते हैं व्याकरण भी उन्हीं प्रयोगों 8 के अनुसार सिद्धि करता है परंतु शब्दनयकी प्रधानतासे वे प्रयोग ठीक नहीं हैं । कारण जितने भी शब्द भेद हैं, लिंग भेद हैं, कारकादि भेद हैं वे सब इस नयकी अपेक्षा भिन्न भिन्न अर्थके द्योतक हैं, इसहूँ लिये भिन्न अाँका परस्पर संबंध मानना ठीक नहीं है अतएव शब्दनय उस व्यवहारको दूषित-व्य- * है भिचरित समझता है । व्यवहारनयसे भले ही ठीक हों। जितने भर भी लिंग आदि व्यभिचार दोष ऊपर कहे गये हैं वे सभी अयुक्त हैं । वस्तु स्वरूपसेर से विपरीत वातको सिद्ध करनेवाले हैं क्योंकि भिन्न अर्थका भिन्न अर्थ के साथ संबंध हो नहीं सकता। । यदि हठात् लिंग व्यभिचार आदिको युक्त माना जायगा तो भिन्न पदार्थका भिन्न पदार्थके साथ संबंध होना युक्त होगा फिर घटको'पट और पटको'घट भी कह देना पडेगा परंतु वैसा होता नहीं इसलिये 8 समान.लिंग समान संख्या और समान साधन आदि शब्दोंका ही. आपसमें संबंध होता है इसबातका ज्ञापक शब्दनय है यदि मूलशब्दके लिंग आदि भिन्न होंगे और पर्याय शब्दके भिन्न होंगे तो इसरीति १ अर संतिष्ठतेकी एवज प्रतिष्ठते कहै अर 'विरमति' की जगह 'उपरमते' कहै सो उपग्रह कहिये उपसर्ग व्यभिचार है। श्लोकवार्तिकाकार भी 'प्रतिष्ठते,'स्थानपर 'अवतिष्ठते, कहना और 'विरमति जगह पर उपरमते, कहना उपग्रह व्यभिचार मानते हैं। 'भिन्न -भिन्न नयोंसे दोनों ही प्रकारके अर्थ'प्रामाणीक है। . ना
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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