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________________ WoTo भाषा ४३८ रूप यद्वा तद्वा जानकर वह गायको घोडा वा घोडाको गाय समझ लेता है अथवा लोहेको सोना और और सोनेको लोहा समझ लेता है तथा कभी कभी गायको गाय और घोडेको घोडा भी कह देता है इसी तरह लोहेको लोहा और सोने को सोना भी कह देता है परंतु कौन गाय है कौन घोडा है ? कौन लोहा है कौन सोना है इसप्रकारका विशेष ज्ञान न होने के कारण उसका अज्ञान ही समझा जाता है उसी प्रकार मिथ्यादर्शन के उदयसे इंद्रियज्ञानके विपरीत हो जानेके कारण मति श्रुत और अवधि से भी विपरीतरूपसे पदार्थ भासने लगते हैं उससमय भी सत असत्का कुछ भी विवेक नहीं रहता इसलिये मति आदि तीनों ज्ञान कुमति आदि स्वरूप परिणत हो जाते हैं । भवत्यर्थग्ग्रहणं वा ॥ २ ॥ अथवा सत् शब्दका अर्थ विद्यमान भी होता है इसलिये सूत्र में जो सत् असत् शब्द हैं उनमें सतका अर्थ विद्यमान और असत्का अर्थ अविद्यमान है इसरीतिसे उन्मत्तं पुरुषके समान स्वेच्छापूर्वक यद्वा तद्वा विद्यमान रूप आदि अविद्यमान, अविद्यमान रूपादिको विद्यमान एवं कभी कभी विद्यमान रूपादिको विद्यमान और अविद्यमानों को अविद्यमान रूपसे जहाँपर मति आदि के द्वारा ज्ञान होता है वहां विद्यमान अविद्यमानपनेका कुछ भी भेदज्ञान न होनेसे मति आदि मिथ्याज्ञान हैं । पदार्थों का विपरीतरूपसे ग्रहण कैसे होता है ? इसवातको वार्तिककार बतलाते हैं- प्रवादिपरिकल्पनामेदाद् विपर्ययग्रहः ॥ ३ ॥ प्रवादियोंकी कल्पनाओंके भेदसे पदार्थों का विपरीत रूपसे ग्रहण होता है क्योंकि किन्ही वादियों का मत है कि एक मात्र द्रव्य ही पदार्थ है- रूप आदि कोई पदार्थ नहीं। दूसरे मानते हैं-संसार में रूप रस अप्पाद १ ४.३८
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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